गुरुवार, 8 अगस्त 2013

संतोष चतुर्वेदी



मुग़ल स्थापत्य कला

भारतीय इतिहास के प्राचीन काल में गुप्त काल अपनी कला एवं संस्कृति के विकास के लिए जाना जाता है। इस समय कला के क्षेत्र में चहुंमुखी प्रगति हुई। एक लम्बे अरसे पश्चात मुग़ल काल में हमें कला एवं संस्कृति का चहुँमुखी विकास दिखाई पड़ता है। कला के क्षेत्र में मुग़ल काल में स्थापत्य कला का समुचित विकास हुआ। इस काल में ऐसे भवन, इमारतें एवं किले आदि बनवाए गए जो आज भारत की पहचान के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गए हैं। हर वर्ष स्वतन्त्रता दिवस पर भारतीय प्रधानमन्त्री दिल्ली में लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं। ताजमहल आज दुनिया के महान मध्यकालीन आश्चर्यों में शुमार किया जाता है और भारत आने वाला शायद ही ऐसा कोई विदेशी पर्यटक हो जो ताजमहल देखने आगरा न आता हो। इस इकाई के अन्तर्गत हम मुग़ल कालीन स्थापत्य कला के विकास पर दृष्टिपात करेंगे और यह जानने का प्रयास करेंगे कि वे कौन से कारक थे जिससे मुग़ल बादशाह अपने समय में स्थापत्य कला के विकास पर पर्याप्त ध्यान दे सके।

मुग़ल स्थापत्य कला की पृष्ठभूमि

चौदहवीं एवं पंद्रहवीं सदी में भारत में सल्तनत काल जब अपने विकास के चरम पर था, भारत के विभिन्न भागों में कला एवं संस्कृति का अपूर्व विकास हुआ। बाबर ने भारत में जब मुग़ल वंश की नींव रखी तब उसके सामने कला की एक समृद्ध विरासत थी। भारत की यह खुशनसीबी थी कि बाबर  स्वयं सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत जागरूक था। भारत में उसे तुर्क एवं अफगान शासकों द्वारा बनवाई गयी इमारतें पसंद नहीं आयी थीं जबकि ‘मान सिंह और विक्रमाजीत के सभी महल उसने घूम-घूम कर देखे जो अलग-अलग जगह पर बिना किसी निश्चित योजना के बने होने पर भी उसे आकर्षक लगे थे।‘ ग्वालियर के महल के स्थापत्य पर भी वह बहुत मुग्ध था और जब उसने अपने लिए महल बनवाने की योजना बनवाई तो इसे आदर्श के तौर पर सामने रखा। बाबर का इरादा था कि भारतीय शिल्पकारों के साथ मिलकर काम करने के लिए वह कांस्टेंटिनोपल से सुप्रसिद्ध अल्बानियन कलाकार सिनान के शिष्यों को भारत आने के लिए आमंत्रित करे। यह अलग बात है कि किसी वजह से बाबर को अपना इस इरादे को तिलांजलि देनी पड़ी। बाबर के समय की आज केवल दो इमारतें बची हैं। ये हैं- पानीपत के काबुली बाग़ की विशाल मस्जिद और रूहेलखंड में संभल की जामी मस्जिद। ये दोनों इमारतें १५२९ ई. में बनवाई गयीं थीं। इन इमारतों में विशालता के अलावा और कोई शिल्प-सौन्दर्य नहीं दिखायी पड़ता। उसके काल की एक तीसरी इमारत अयोध्या में थी जिसे 1992 ई. में साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया। इस मस्जिद को अब्दुल बाकी ने बाबर के निर्देश पर अयोध्या में बनवाया था। बाबरनामा में बाबर इस बात का जिक्र करता है कि उसने ‘आगरा, सीकरी, बयाना, धौलपुर, ग्वालियर और कोइल (अलीगढ़) की इमारतों में कई सौ काम करने वाले लगाए थे।‘ ऐसा लगता है कि बाबर ने इन जगहों पर स्नानागार, कुँए, तालाब और फब्बारे बनवाये थे।

हुमायूं के समय मुग़ल स्थापत्य कला  

अपने पिता की तरह हुमायूँ भी ललित कला में बहुत अभिरूचि रखता था। किन्तु आजीवन संघर्षरत रहने के कारण वह अपनी कलात्मक अभिरूचियों को उस स्तर पर मूर्त रूप नहीं दे पाया जैसा उसने अपने मानस में इसका एक खाका खींच रखा था। कुल मिला कर उसकी दो इमारतें हमें प्राप्त होती हैं। आगरा और हिसार के फतेहाबाद में उसने दो मस्जिदें बनवाईं। ये अब खंडहर के रूप में ही बची हैं और इनमें भी कोई ख़ास शिल्पगत विशिष्टता नहीं दिखाई पड़ती। हुमायूं ने 1533 ई. दिल्ली एक नए नगर की नींव डाली जिसका नाम ‘दीनपनाह’ (धर्म का शरणस्थल) रखा गया। इस नगर की दीवारें रोड़ी की बनी हुई थीं। और सामान्य भवनों को महलों के रूप में ढालने का प्रयास किया गया था। हुमायूं द्वारा स्थापित किये गए नगर को आज हम पुराने किले के नाम से जानते हैं।

हुमायूँ ने मुग़ल स्थापत्य कला पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव तो नहीं छोड़ा लेकिन कुछ परोक्ष प्रभाव अवश्य डाला। दीनपनाह के ठीक बाहर बनवाया गया हुमायूँ का मकबरा ऐसी इमारत है जिसने मुग़ल स्थापत्य कला को एक नई दिशा प्रदान की। हुमायूं की पत्नी हाजी बेग़म की देख-रेख में 1564 ई. में इसका निर्माण आरम्भ कराया गया। इस मकबरे का खाका हाजी बेगम के के मुख्य वास्तुकार फारस के मलिक मिर्जा गियास ने बनाया। यह अष्टभुजीय संरचना है जिसके बीच में एक हाल और चारो ओर चार कक्ष हैं। इसका गुम्बद पूरी तरह सफ़ेद संगमरमर का बना है और शिखर को धातु स्तूपिका का रूप दिया गया है। शेष इमारत में सफ़ेद और काले संगमरमर के साथ-साथ लाल-बलुआ पत्थर का इस्तेमाल किया गया है। पूरी इमारत 22 फीट ऊँची मेहराबदार चौकी के ऊपर बनी है। मकबरे के चारों और बाग़ है जिसमें आयताकार और चौकोर क्यारियाँ बनी हैं। इनसे होकर ही मकबरे में जाने के लिए मुख्य मार्ग बनाया गया है। 

 (चित्र: हुमायूँ का मकबरा)

इस मकबरे की प्रशंसा करते हुए प्रख्यात कलाविद पर्सी ब्राउन लिखते हैं –‘इस इमारत की शिल्प कला के लिए संभवतः उत्तम परिभाषा यह होगी कि यह फ़ारसी आदर्श की अभिव्यक्ति है, क्योंकि इसकी रचना में बहुत कुछ भारतीय स्वदेशी तत्त्व है। साथ ही बहुत कुछ ऐसा भी है जिसे फ़ारसी शैली की प्रेरणा का फल कहा जा सकता है। तब तक फारस के सिवा और कहीं इस प्रकार की रचना और आकृति का गुम्बद नहीं था। केवल उसी देश की इमारतों में मेहराबयुक्त ऐसे मंडप बनाए जाते थे जो अग्र भाग को इस प्रकार का रूप प्रदान करते थे। वहां भी केवल शाही कब्रों पर बनी इमारतों में ही ऐसी आतंरिक बनावट तथा कमरों और दालानों की ऐसी व्यवस्था देखी जाती है। दूसरी ओर केवल भारत में ही सुन्दर छतरियों वाले ऐसे कलात्मक मंडप की रचना की जा सकती है। इसके अलावा यह भारतीय शिल्पकारों का ही कौशल है जिन्होंने पत्थर और चिनाई के मेल से उत्तम संगमरमर पर ऐसा कलात्मक शिल्प तैयार कर दिया है।‘ भारतीय और फ़ारसी शैली के जिस सम्मिश्रण की शुरुआत इस समय हुमायूँ के मकबरे से हुई उसकी चरम परिणति आगे चल कर ताजमहल के निर्माण में अपने परिपक्व रूप में दिखाई पड़ती है।

अकबर के समय मुग़ल स्थापत्य कला:   

मुग़ल बादशाहों में अकबर एक स्वप्नदर्शी सम्राट था। उसने हिन्दू और मुसलमान संस्कृति को एकाकार कर इसे एक नया रूप देने की कोशिश की जो उसकी स्थापत्य योजना से लेकर धार्मिक  अवधारणाओं तक में स्पष्ट दिखाई पड़ती है। अकबरी इमारतों में ईराकी और भारतीय स्थापत्य कला के तत्वों का बेहतरीन समावेश है। अकबर ने लम्बे समय तक शासन किया अतः उसके पास निर्माण कराने के लिए समय और साधन दोनों उपलब्ध थे। ऐसे में उसने एक-एक कर अपने सपनों को मूर्त रूप देने का क्रम शुरू किया। अकबर ने कला को अपने समय में जो संरक्षण प्रदान किया और स्वयं आगे बढ़ कर इसमें दिलचस्पी लिया उससे इस काल में एक से बढ़ कर एक इमारतें तैयार हुईं। इस अर्थ में अबुल फजल का कथन युक्तिसंगत लगता है कि – ‘सम्राट सुन्दर इमारतों की योजना बनाता है और अपने मष्तिष्क एवं हृद्य के विचार को पत्थर और गारे का रूप दे देता है।’ इसीलिए उसके द्वारा बनवाये गए भवनों में उसके व्यक्तित्व की छाप है। उसने तत्कालीन कला शैलियों की बारीकी को समझा और अपने कलाकारों को नई नई इमारतें बनानें का विचार दिया इस क्रम में उसके आदेशों पर आगरा, फतेहपुर सीकरी, लाहौर, अटक तथा इलाहाबाद आदि स्थानों पर अनेक इमारतें बनीं। कलाविद फर्ग्यूसन के अनुसार ‘अकबर के काल में स्थापत्य कला की जो शैली विकसित हुई वह वास्तव में हिन्दू और मुस्लिम शैलियों का समन्वय है।’ जिसे भारत की राष्ट्रीय स्थापत्य कला शैली का नाम भी दिया जाता है।

अकबर के काल में निर्मित इमारतों में अधिकतर लाल पत्थर और संगमरमर का उपयोग किया गया है। उसने अपने राज्य की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मजबूत किलों के निर्माण पर भी ध्यान दिया। इसी के मद्देनजर उसने आगरा, लाहौर और इलाहाबाद के किलों का निर्माण भी कराया। 

 (चित्र: आगरा का किला)

आगरा का किला

लोदी वंश के शासक सिकन्दर शाह लोदी ने आगरा में ईंटों का एक किला बनवाया था। अकबर ने इसी जगह किले के पुनर्निर्माण का कार्य आरम्भ किया। इस प्रकार आगरे का लाल किला अकबर द्वारा निर्मित पहली प्रमुख इमारत थी जो वस्तुतः शाही महल था। इसके निर्माण में अकबर ने बहुतायत में उपलब्ध रेतीले लाल पत्थर को सामग्री के रूप में इस्तेमाल कराया। किले के अन्दर बहुत सी ईमारतें भी बनवाई गयीं जिनकी संख्या अबुल फजल के अनुसार लगभग 500 थी। किले का निर्माण अकबर के प्रधान कारीगर कासिम खां की देख-रेख में 1565 ई. में शुरू किया गया। इसमें तीन-चार हजार कुशल कारीगरों ने पंद्रह वर्षों तक रोक काम किया था। उस समय इसके निर्माण में पैंतीस लाख रुपये खर्च हुए थे। यह लगभग डेढ़ मील के दायरे में बना है। लाल गढ़े हुए पत्थरों से बनी इसकी दीवारें लगभग सत्तर फुट ऊँची हैं।                                                              
बाहरी दीवारें ऊँची होने के साथ-साथ मोटी और कंगूरों तथा ढलवां छिद्रों से युक्त बनाईं गयीं जिससे ये सामरिक दृष्टि से अभेद्य बन जाए। इसमें मूलतः चार द्वार बनाए गए। दिल्ली द्वार जो पश्चिमी दिशा में बना था और अमर सिंह द्वार, जो छोटा है और निजी उपयोग के लिए बनाया गया, अब भी बचे हुए हैं। बाकी दो दरवाजों को बाद में दीवार उठवा कर बन्द करा दिया गया। दिल्ली दरवाजे से प्रवेश कर भीतरी प्रवेश द्वार ‘हाथी-पोल’ पर पहुँचा जाता है। हाथी पोल दरवाजे के दोनों तरफ पत्थर के दो हाथी महावत सहित बने हुए थे। बाद में औरंगजेब ने इन हाथियों को तोड़वा दिया था। प्रख्यात कलाविद पर्सी ब्राउन दिल्ली दरवाजे की तारीफ़ करते हुए कहते हैं – ‘निःसंदेह ही यह भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली दरवाजों में से है।‘ इसके मुख्य प्रवेश द्वार जो मेहराबी है, पर दोनों तरफ दो बुर्ज हैं, लेकिन जिस कुशलता से यह योजना कार्यान्वित की गयी है, वही इसे प्रभावशाली के साथ-साथ कलात्मक रूप दे देती है। किले के द्वार तक पहुँचने के लिए एक पुल से जाना पड़ता है क्योंकि दुर्ग के इर्द-गिर्द चारो तरफ खाई है। सुरक्षा की दृष्टि से पहले इसमें हमेशा पानी भरा रहता था। आज किले में प्रवेश करने के लिए अमर सिंह दरवाजे का इस्तेमाल किया जाता है।

किले के अंदर पाँच सौ से अधिक भवनों का लाल पत्थरों से निर्माण कराया गया था। ये भवन बंगाल एवं गुजरात की शिलियों में निर्मित कराये गए जिससे इनका आकर्षण बढ़ जाता है। बाद में इनमें से अधिकाँश इमारतों को शाहजहाँ ने गिरवा कर उनके स्थान पर सफ़ेद संगमरमर की इमारतें बनवा दीं। इनमें से कुछ आज भी किले के दक्षिण-पूर्वी कोने में बची हुई हैं जो अकबर की प्रारम्भिक कृतियों का प्रतिनिधित्व करती दिखाई पड़ती हैं। 


 (चित्र: जहाँगीरी महल)
जहाँगीरी महल

किले के अंदर की इमारतों में जहाँगीरी महल एक उत्कृष्ट कृति है जो आज भी सुरक्षित है। ऐसा लगता है कि अकबर द्वारा इसका निर्माण शाहजादा जहाँगीर के लिए कराये जाने के कारण इसका नाम ‘जहाँगीरी महल’ पड़ गया। अकबर के बाद जहांगीर इसमें निवास करने लगा इसलिए इसका यह नाम चर्चित हो गया। प्रोफ़ेसर राधेश्याम के अनुसार वस्तुतः यह अकबर का हरम था। यह महल लगभग वर्गाकार है। इसकी लम्बाई 249 फूट जबकि चौडाई 260 फुट है। इसके चारों कोनो पर चार बड़ी छतरियां हैं। अन्दर एक विशाल आँगन है जिसके चारो ओर कमरे, हाल और वीथिकाएँ हैं। लाल पत्थर से निर्मित यह इमारत आलंकारिक बन पड़ी है। इसके दोनों ओर दो अट्टालिकाएँ हैं जो छतरियों से युक्त बड़ी सुन्दर हैं। खम्भे,तोड़े, छज्जे और छतरियों का व्यापक प्रयोग हंस, हाथी, तोते, मोर, और मकर की आकृतियाँ इस इमारत के प्रमुख आकर्षण हैं। इस महल की रचना पूर्णरूपेण हिन्दू है। इसमें बीम और ब्रेकेट आधारित शैली को अपनाया गया है। इसकी छतें डाटदार न होकर पटी हुईं हैं। इसमें जहां तक हो सका है मेहराबों से बचा गया है और जहां मेहराबें हैं वहां उन्हें सिर्फ सजावट के लिए ही बनाया गया है। 

जहांगीरी महल के सामने के लान में जहाँगीर द्वारा 1611 में बनवाया गया एक पत्थर का हौज है। हरे-हरे से काले पत्थर के एक ही ढोके को काट कर बनाया गया हौज एक ख़ूबसूरत प्याले की शक्ल का लगता है। यह 5 फुट ऊँचा और चार फुट गहरा है। इसका इस्तेमाल नहाने के लिए किया जाता था। यह बहुत ही कलात्मक बन पडा है। इस हौज की बाहरी सतह पर फ़ारसी में आयतें खुदी हुई हैं जिनकी अंतिम पंक्ति से यह पता चलता है कि इसका निर्माण 1019 हिजरी में किया गया था। जहाँगीरी महल के ठीक दक्षिण में उसके बराबर में ही अकबरी महल है। अकबरी महल का मुख्य भाग ध्वस्त हो गया है फिर भी इसकी योजना समझ में आ जाती है। इसका निर्माण जहाँगीरी महल से कुछ वर्ष पूर्व कराया गया। जहाँगीरी महल की अधिक सजावटपूर्ण रचना की अपेक्षा इसकी बनावट कुछ भद्दी और भोड़ी सी है। 

फतेहपुर सीकरी की इमारतें 

अकबर 1569 ई. में एक मुस्लिम संत शेख सलीम चिश्ती के दर्शनों के लिए सीकरी नामक गाँव में गया। यह गाँव आगरा से तेइस मील पश्चिम दिशा में अवस्थित था। शेख सलीम की दुवाओं से अकबर को 30 अगस्त 1569 ई. को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। जिसका नाम शेख सलीम के नाम पर सलीम रख दिया गया। सलीम को उसके जन्म के कुछ दिनों बाद ही शेख के आश्रम में भेज दिया गया। सीकरी को अपने लिए सौभाग्यपूर्ण मानते हुए अकबर ने इसे बड़े नगर में परिवर्तित करने का निश्चय किया। जहांगीर अपनी आत्मकथा में लिखता है – ‘मेरे श्रद्धेय पिता ने सीकरी गाँव को, जो कि मेरा जन्मस्थल था, अपने लिए सौभाग्यपूर्ण समझ कर, उसे अपनी राजधानी बना लिया। चौदह-पंद्रह वर्षों में जंगली जानवरों से भरी हुई यह पहाडी सभी प्रकार के बाग़-बगीचों, इमारतों, ऊँची शानदार अट्टालिकाओं तथा ह्रदय को प्रिय लगने वाले महलों से युक्त नगरी बन गयी।‘(तुजुके-जहाँगीरी, रोजर बेवर कृत अनुवाद, भाग-एक, पृष्ठ-2)। 1569 से 1585 ई. तक यही सीकरी शाही नगर बना रहा। नए राजधानी नगर का निर्माण 1569 में आरम्भ करके पंद्रह वर्षों में पूरा कर लिया गया। गुजरात विजय के पश्चात इसका नाम फतेहपुर कर दिया गया, जिसे अब हम फतेहपुर सीकरी नाम से जानते हैं। कलाविद मुल्कराज आनन्द लिखते हैं –‘इमारतों का पूरा समूह जिसमें निजी महल, निवास, शाही मकानात, बड़ी मस्जिद के अलावा विशाल प्रवेश द्वार भी शामिल है, विश्व स्थापत्य कला के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।‘ इसी समय भारत की यात्रा पर आये यूरोपीय यात्री फादर मांसरेट ने सीकरी को बनते हुए अपनी आँखों से देखा था। अपने विवरण में फादर लिखते हैं- ‘बतायी हुई सामग्री पूरी तरह तैयार कर के ही उस स्थान पर लायी जाती थी जहां उसे लगाना होता था।‘ इस प्रकार 14-15 वर्षों में अनेक सुन्दर एवं शानदार इमारतों का एक नगर बन कर तैयार हो गया। 1585 ई. के बाद सम्राट को उजबेग आक्रमण का सामना करने के लिए लाहौर जाना पड़ा। इसके बाद अकबर कभी-कभार ही सीकरी आ पाता था।
फतेहपुर सीकरी नगर को एक ऊँची पहाड़ी पर बसाया गया जो दो मील लम्बी और एक मील चौड़ी थी। इसके तीन तरफ से उबड़-खाबड़ दीवार बनवा दी गयी जबकि चौथी तरफ यानी उत्तर-पश्चिम की ओर कई मील लम्बी चौड़ी एक झील बना दी गयी। दीवार में कुल नौ दरवाजे थे जिसमें से चार महत्वपूर्ण थे। पूर्व की ओर स्थित दरवाजे का नाम ‘आगरा-दरवाजा’ था जो इसका मुख्य प्रवेश द्वार था। दीवाने-आम, दीवाने-ख़ास, राजकीय कोषागार, शफाखाना (चिकित्सालय), पञ्च-महल, तुर्की सुल्ताना की कोठी,  झरोखा-दर्शन, जोधाबाई का महल, हवा महल, बीरबल का महल, मरियम का भवन, जामा मस्जिद, बुलंद दरवाजा, इस्लाम खां का मकबरा, नौमहला, इबादतखाना, जनानाबाग, मीना बाजार, दफ्तर-खाना, हाकिम का महल, जौहरी बाजार, नौबतखाना, बारादरी, हमाम, लंगरखाना, कबूतरखाना, संगीन-बुर्ज, मैदान-ए-चौगान, मस्जिद-शाहकुली, और राजा टोडरमल का महल सीकरी की प्रमुख इमारतें हैं।  
     
 (चित्र: जामी मस्जिद)

यहाँ स्थित इमारतों में जामी मस्जिद प्रमुख है जिसका निर्माण 1571 ई. में किया गया। इसकी दीवाल पर यह अंकित है कि यह पवित्र स्थल मक्का की अनुकृति है। इसमें एक विशाल आँगन के तीन तरफ  खम्भेदार दालान और परम्परानुसार पश्चिम की तरफ किबला (आराधना-भवन) निर्मित है। लाल पत्थर से बनी इस मस्जिद में रंगीन पत्थरों का जडाऊ काम भी मिलता है। मस्जिद की योजना इस्लामी है किन्तु इसके स्तंभों, छतों और कोष्ठकों के प्रयोग में हिन्दू स्थापत्य कला के तत्व भी दृष्टिगत होते हैं। इसी मस्जिद के दक्षिणी द्वार के रूप में 1601 ई. में दक्षिण भारत की विजय के स्मारक के रूप में मशहूर बुलन्द दरवाजा बनवाया गया। यह भारत का सर्वाधिक ऊँचा एवं प्रभावशाली प्रवेश द्वार है। इसकी ऊँचाई 176 फुट है। यह एक चबूतरे पर निर्मित है जिसकी ऊँचाई 42 फुट है। चबूतरे से दरवाजे की ऊँचाई 134 फुट है। यह दरवाजा अपने-आप में एक पूर्ण एवं भव्य इमारत है जिसमें एक विशाल मेहराब है तथा उसके ऊपर सुन्दर छतरियां हैं। इसके किनारे के दोनों भाग तीन मंजिले हैं जिनमें खिड़कियाँ बनी हैं। यह भव्य दरवाजा अकबर की महानता एवं उसके शानो-शौकत को पूरी तरह प्रतिबिंबित करता है। कलाविद मुल्कराज आनन्द इसके बारे में लिखते हैं- ‘यह लम्बमान वास्तुशिल्प की शौर्यपूर्ण भव्यता का आभास सहित, गगनचुम्बी हो कर अपनी श्रेष्ठ शोभा, सुलेख और उत्कीर्ण बेल-बूटों के सहारे दर्शकों को सन्देश देता हुआ सा लगता है। बादशाह अकबर ने इस पर एक सन्देश खुदवा दिया ‘मेरी के पुत्र जीसस ने कहा, यह संसार सेतु है, इसे पार करो किन्तु इस पर घर न बनाओ। जो एक घड़ी समय की आशा रखता है वह अनंत की आशा रखता है। यह संसार एक घड़ी का है। इसे प्रार्थना में व्यतीत करो क्योंकि इसके बाद क्या होगा यह अज्ञात है।‘ 

 (चित्र: बुलन्द दरवाजा)      

जामी मस्जिद के आँगन में ही उत्तरी कोने में शेख सलीम चिश्ती का मकबरा है। 1581 ई. में बनवाया गया यह मकबरा पहले तो लाल पत्थरों से बनवाया गया किन्तु बाद में इस पूरी संरचना को संगमरमर का बना दिया गया। मकबरा वर्गाकार है और दक्षिण की तरफ एक मुख-मंडप बना है। वर्गाकार कक्ष में ही शेख सलीम की कब्र है। इसके चारो ओर बरामदा है जो सुन्दर जालियों से सुसज्जित है। कक्ष के ऊपर एक गुम्बद है। सज्जा के लिए इसमें स्तंभों, छज्जों और कोष्ठकों का प्रयोग किया गया है। इन तत्वों के आधार पर कलाविद पर्सी ब्राउन ने कहा है- ‘इसकी स्थापत्य कला-शैली इस्लाम की बौद्धिकता एवं गाम्भीर्य की अपेक्षा मंदिर के निर्माता की स्वतन्त्र कल्पना का परिचय देती है।‘ इस मकबरे का आतंरिक भाग सुन्दर जालियों, दीवालों एवं अलंकृत फर्श से सुसज्जित है। 
 (चित्र: जोधाबाई का महल)

जोधाबाई का महल सीकरी की सर्वाधिक विशाल इमारत है। यह आयताकार इमारत (320x215x12 फुट) है। इसके निर्माण में कोष्ठकों जैसे विशुद्ध भारतीय शैली के प्रयोग के मद्देनजर कलाविद पर्सी ब्राउन महोदय ने अनुमान लगाया है कि ‘इसका निर्माण कार्य गुजरात के स्थपतियों ने किया होगा।‘ जोधाबाई के महल के उत्तर में दुमंजिली इमारत हवामहल स्थित है। यह पूरी तरह हवादार जालियों से युक्त महल है एवं निर्मिती में अपने नाम को सार्थक करता है। जोधाबाई महल के निकट ही एक और दोमंजिली इमारत ‘मरियम का भवन’ है। इसकी दीवार पर सुन्दर चित्रकारी की गयी है। इन पर चित्रित दृश्य शिकार, खेल, हाथियों के युद्ध, जुलूस, परियों, पशुओं, मानवाकृतियों और हिन्दू देवी-देवताओं के हैं। इन चित्रों के कारण ही इसे अकबर का रंगीन महल या चित्रालय भी कहा जाता है। इसके ठीक उत्तर-पूर्व दिशा में सिर्फ खम्भों पर आधारित पञ्चमंजिली इमारत ‘पञ्च महल’ है।

 (चित्र: पञ्च महल)

भू-तल पर इसमें 84 खम्भे हैं। हर मंजिल अपने नीचे की मंजिल से क्रमशः छोटी होती गयी है। एक मंजिल से दूसरी मंजिल में जाने के लिए सीढ़ियों का निर्माण किया गया है। प्रत्येक मंजिल के स्तम्भ योजनाबद्ध रूप से बड़े हैं। इन स्तंभों पर उभरी हुई घंटियाँ, पुष्प-पत्तियों सहित कलश, रुद्राक्ष मालाएँ आदि उत्कीर्ण है। इसकी सबसे ऊपर वाली मंजिल पर चार स्तंभों पर टिका एक गुम्बद्युक्त मंडप बना है। इसके सामने एक छोटा वर्गाकार कमरा है। इसकी दीवालों में चारों ओर आले बने हुए हैं। इसे ‘तुर्की सुल्ताना की कोठी’ भी कहा जाता है। तुर्की सुल्ताना या तो हिंदाल की पुत्री रुकिया बेगम थी या बैरम खां की विधवा रुकिया बेगम थी जिससे अकबर ने विवाह कर लिया था। इसके निवास के लिए ही यह एकमंजिली कोठी तैयार कराई गयी जिसमें स्ताम्भ्युक्त बरामदे हैं। इसका भीतरी भाग सज्जा युक्त है। इसी कोठी से जुड़ा हुआ ‘ख़ास महल’ था जो अकबर का आवास गृह था। यह दोमंजिला महल है जिसके चारों कोनो पर चार छतरियां हैं। इसकी बाहरी दीवार सफ़ेद संगमरमर के जालीदार पर्दों और लाल-ग्रेनाईट के पत्थरों से बनी थी जिससे राजकीय हरम की महिलाओं के लिए ओट हो सके। ख़ास महल के उपरी मंजिल के किनारे पर ‘झरोखा-ए-दर्शन’ है। यहीं से बादशाह अकबर प्रत्येक दिन अपनी प्रजा को दर्शन देता था। ‘बीरबल का महल’ दोमंजिला इमारत है। इसके ऊपर चपटे गुम्बद और बरसातियों की छतें पिंडाकार (पिरामिडनुमा) हैं। इसके छज्जे कोष्ठकों पर आधारित हैं। इस भवन के आन्तरिक एवं वाह्य दोनों भाग सुसज्जित हैं। एक समालोचक के अनुसार बीरबल का महल ‘निवास के लिए बनी श्रेष्ठ इमारत का श्रेष्ठ नमूना, डिजाइन की क्रमबद्धता के लिए उल्लेखनीय और सजावट तथा वास्तु शास्त्र की दृष्टि से अनुपम है।‘
इस प्रकार सीकरी की इमारतें अकबर के कलाप्रेम को तो दर्शाती ही हैं। साथ ही यह उसके एक महान निर्माता एवं शासक होने को भी द्योतित करती है। कलाविद फर्ग्यूसन अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन एंड इस्टर्न आर्किटेक्चर’ में लिखते हैं – ‘सीकरी के यह भवन पाषाण का ऐसा रोमांस है जो कि अन्यत्र कम, बहुत कम ही मिलेंगे और ये उस निर्माण कराने वाले के मस्तिष्क की ऐसी प्रतिच्छाया है, जो किसी अन्य स्रोत में सरलतापूर्वक उपलब्ध नहीं हो सकता।‘ इतिहासकार विसेंट स्मिथ तो एक कदम और आगे बढ़ते हुए कह उठते हैं – ‘फतेहपुर सीकरी जैसा निर्माण कार्य न पहले कभी हुआ था और न कभी होगा। यह रोमांस का ऐसा प्रतिरूप है, जिसमें अकबर की अद्भुत प्रवृति के सभी मनोभाव जड़ गए हैं।’

जहाँगीर के समय मुग़ल स्थापत्य कला:

अकबर के पुत्र जहांगीर की रुचि चित्रकला एवं बाग़ लगवाने में अधिक थी। फिर भी उसने वास्तुकला में अपनी कुछ रूचि दिखाई है। अपने समय में उसने दो महत्वपूर्ण इमारतों का निर्माण कार्य कराया। पहले कार्य के अंतर्गत उसने अपने पिता अकबर के मकबरे को पूरा कराया जिसकी नींव अकबर के समय में ही पड़ गयी थी। दुसरे कार्य के अंतर्गत उसने एतमाद-उद-दौला का मकबरा निर्मित कराया जो मुग़ल स्थापत्य की एक अनुपम कृति मानी जाती है। यह इमारत बादशाह की पत्नी नूरजहाँ की देख-रेख में बनवाई गयी। इसके अतिरिक्त जहांगीर ने सिकंदरा में अपनी माँ का मकबरा और कांच महल का निर्माण कार्य भी कराया।



 (चित्र: अकबर का मकबरा)


आगरा से लगभग पांच मील की दूरी पर सिकन्दरा नामक गाँव अवस्थित है। यहीं पर अकबर का मकबरा है जिसकी योजना स्वयं अकबर ने बनायी थी। अकबर ने इसका निर्माण कार्य शुरू भी करा दिया। लेकिन जब इस मकबरे की चौकी ही बन पायी थी कि बादशाह अकबर का निधन हो गया। जहाँगीर ने इसका निर्माण कार्य जारी रखा और यह कार्य १६१३ ई. में पूरा हो गया। जहाँगीर अपनी आत्म-कथा में इसका विस्तृत विवरण देता है। इस मकबरे की बनावट परम्परागत इस्लामी शैली की न होकर बौद्ध बिहार जैसी है। यह पिरामिडनुमा है जिसके चारो ओर बुर्जीदार ऊँची दीवार है। इसकी ऊँचाई १०० फुट है। इसका निर्माण चारबाग शैली पर किया गया है जिसमें चार द्वार बने हैं। दक्षिण का द्वार सर्वाधिक सुन्दर है जो मकबरे का मुख्य-द्वार भी है। बाकी के तीन प्रवेश द्वार नकली हैं जो केवल अनुरूपता के लिए बनाए गए हैं। तीस फीट ऊँची चौकी पर बना यह मकबरा बड़ा शान्त, गम्भीर, विशाल एवं गरिमामय है जो अकबर के व्यक्तित्व को रूपायित करता है। इसके चारो कोनो पर सफ़ेद संगमरमर की चार सुन्दर मीनारें हैं। कलाविद पर्सी ब्राउन के अनुसार ‘सिकन्दरा के इस मकबरा के पहले किसी भी इमारत में ऐसी सुन्दर मीनारें नहीं बनी हैं। ये मीनारें कोई नवीन प्रयोग नहीं थीं बल्कि अपने पूरे और अंतिम आकार-प्रकार में पूर्णता को प्राप्त थीं।’ यह एक पचमंजिली इमारत है जिसकी प्रत्येक उपरी मंजिल नीचे की मंजिल से आकार में छोटी होती गयी है। पहली मंजिल पर अकबर की असली कब्र बनी है जो सफ़ेद संगमरमर की है। इसके उपरी तल पर निर्मित कब्र नकली है। दोनों कब्रों पर फूलों का चित्रण किया गया है। कब्र के सिरहाने ‘अल्ला-हु-अकबर’ यानी ‘ईश्वर महान है’ और पैताने की ओर ‘जल्ले-जलाल-हू’ यानी ‘उसकी शान में वृद्धि हो’ अंकित है। कब्र के चारो तरफ खुदा के ९९ नाम अरबी में खुदे हैं। कलाविद हैवेल ने इसके बारे में उचित ही लिखा है- ‘अकबर का मकबरा एक महान भारतीय शासक का उपयुक्त स्मारक है।’ यह मकबरा अकबर की धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक सर्वजातीय स्मारक है अर्थात यह हिन्दू, बौद्ध, मुस्लिम और ईसाई स्थापत्य कला शैलियों के सुन्दर समन्वय का उदाहरण है।

 (चित्र: एतमाद-उद-दौला का मकबरा)
एतमाद-उत-दौला का मकबरा 

जहाँगीर द्वारा आगरा में निर्मित यह दूसरी महत्वपूर्ण इमारत है। एतमाद-उद-दौला नूरजहाँ के पिता और जहाँगीर के श्वसुर थे। जहांगीर द्वारा निर्मित यह मकबरा अकबर और शाहजहाँ के बीच की स्थापत्य शैलियों को जोड़ने वाला सेतु है क्योकि इसके निर्माण में लाल-पत्थर और संगमरमर का इस्तेमाल किया गया है। आगरा में यमुना तट पर स्थित इस आलंकारिक इमारत का निर्माण कार्य नूरजहाँ ने १६२६ ई. में ईरानी शैली में कराया था। यह मकबरा ५४० फुट लम्बे और चौड़े अहाते में १५० फुट वर्गाकार चबूतरे पर निर्मित है। इसके चारो ओर चार प्रवेश-द्वार हैं। मकबरे का मुख्य कक्ष वर्गाकार (२२ फुट) है। मुख्य मकबरा सफ़ेद संगमरमर का है। जिसमें एतमाद-उद-दौला और उसकी पत्नी की कब्रें पीले बहुमूल्य पत्थर की बनी हैं। कक्ष की दीवारों पर कुरआन की आयतें अंकित हैं। अलंकरण में फूल-पत्तियों की बहुतायत से जहाँगीर के प्रकृति-प्रेम का पता चलता है। इससे संलग्न अनेक कक्ष है जिसमें उसके परिवार के लोगों की कब्रें हैं। इस दोमंजिले भवन के प्रत्येक कोने पर अष्टकोणीय मीनारें बनाईं गयीं हैं। मुग़लकालीन यह पहली ऐसी इमारत है जो पूरी तरह सफ़ेद संगमरमर से बनी है और जिसमें सबसे पहले ‘पित्रा-ड्यूरा’ शैली का काम किया गया है। पर्सी ब्राउन के अनुसार ‘मकबरे में सोने तथा बहुमूल्य पत्थरों के जडाऊ काम का श्रीगणेश मिलता है।‘ हालांकि कई जगहों पर इसकी शैली के अनुरूप सजावट उपयुक्त प्रतीत नहीं होती। इसके प्रभाव के बारे में फर्ग्यूसन लिखते हैं- ‘इसके झरोखों में वेधित संगमरमर खण्डों पर की गयी सुन्दर नक्काशी, जो फतेहपुर सीकरी स्थित सलीम चिश्ती की दरगाह से मेल खाती है, इसके श्वेत संगमरमरी दीवारों की सुन्दरता और सजावट के श्रेष्ठ रंग मिल कर इतना सौन्दर्यमय प्रभाव उत्पन्न करते हैं कि उचित रूप में उसकी कलात्मक तुलना बाद में निर्मित शाहजहाँ की इमारतों से ही न्यायसंगत रूप में की जा सकती है।’ 

इस समय निर्मित इमारतों में जहाँगीर का मकबरा, अब्दुर्रहीम खानेखाना का मकबरा, जालंधर में निर्मित सराय, लाहौर के निकट शाहदरा में स्थित जहाँगीर का मकबरा प्रमुख हैं। जहाँगीर के मकबरे का निर्माण नूरजहाँ ने ‘अकबर के मकबरे’ की तर्ज पर कराया। यह एकमंजिला वर्गाकार इमारत २२ फुट ऊँची है। इसके प्रत्येक कोने पर एक सुन्दर मीनार है। अत्यधिक सजावट और जडाऊ संगमरमर इसकी प्रमुख विशेषता है। 
                               
शाहजहाँ का संगमरमरी काल

शाहजहाँ का काल साहित्य, संस्कृति और कला की दृष्टि से मुग़ल वंश का चरमोत्कर्ष का काल था। अपने पितामह अकबर की हिन्दू उदारवाद की शैली की जगह शाहजहाँ ने फ़ारसी पद्धति के रूपांकनों को अपनाया। तथापि इस समय के स्थापत्य में शाहजहाँ की अपनी सोच एवं कल्पना शक्ति का सुन्दर समन्वय भी दिखाई पड़ता है। रेने ग्राउज ने ‘दि सिविलाईजेशन ऑफ़ ईस्ट इंडिया’ में इस बात की तस्दीक करते हुए लिखा है- ‘वे इमारतें जो इसने निर्मित की हैं, श्वेत संगमरमर के उचित उपयोग, रंगीन पत्थरों की सुरुचिपूर्ण सजावट एवं नक्काशी को देखते हुए इस्फहान और कुस्तुन्तुनिया की इमारतों से भिन्नता रखती है।‘ इस युग के स्थापत्य में संगमरमर की अधिकता को देखते हुए कुछ विद्वानों ने इसे ‘संगमरमर के युग’ की संज्ञा दी है। ‘मोती मस्जिद’ और ‘ताजमहल’ जैसी सफ़ेद संगमरमर की इमारतें अपने सम्पूर्ण स्थापत्य में बेजोड़ बन पडी हैं और आज की विश्व-प्रसिद्ध इमारतों में शुमार की जाती हैं। दातेंदार मेहराब, दुहरा गुम्बद जो बल्बाकार तथा ऊँचा उठा हुआ है, इमारत के उठान और विभिन्न भागों में उचित तालमेल, रंगीन कीमती पत्थरों के जडाऊ काम का उचित स्थान पर प्रयोग शाहजहाँयुगीन स्थापत्यकला की प्रमुख विशेषताएँ हैं। शाहजहाँ कालीन लगभग सभी इमारतों में मेहराबें पत्तियोंदार या नोकदार है, जिससे सफ़ेद संगमरमर के खम्भों पर आधारित किनारेदार मेहराबों की कतारें इस युग की विशेषता बन गयी है। संगमरमर के प्रति शाहजहाँ का जूनून इस कदर था कि आगरा, लाहौर तथा अन्य स्थानों में पूर्वजों द्वारा बनवाई गयी अनेक इमारतों को उसने संगमरमर की इमारतों में परिवर्तित करना शुरू कर दिया। लाहौर के किले की ऐसी इमारतों में दीवाने-आम, मुस्समन बुर्ज, ख्वाबगाह तथा शीशमहल मुख्य है। आगरा के किले में शाहजहाँ द्वारा ज्यादा परिवर्तन कराये गए और इसी क्रम में अनेक पुरानी इमारतें ध्वस्त कर दी गयीं। शाहजहाँ द्वारा कराये गए नवीन निर्माणों में दीवाने-आम, दीवाने-ख़ास, मोती-मस्जिद और खास-महल उल्लेखनीय है। दो पीढ़ियों और शैलियों का अन्तर यहाँ पर स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। कलाविद फर्ग्यूसन लिखते हैं- ‘दो शैलियों में इतना अधिक भेद आगरा के महलों के अलावा और कहीं नहीं है।  अकबर या जहाँगीर द्वारा लाल-पत्थर से निर्मित हिन्दू वास्तुशिल्प से हो कर एक द्वार आगे की ओर खुलता है, वहाँ से संगमरमर से निर्मित शाहजहाँ के हरम में प्रवेश करते ही भिन्न प्रकार का शिल्प विधान देखने को मिलता है। किन्तु इस भिन्न प्रकार में भी एक कलात्मक सौन्दर्य है जो प्राच्य की देन है।‘

शाहजहाँ नूतन परिकल्पनाओं को यथार्थ के स्तर पर रूपायित करने वाला बादशाह था। इसी क्रम में उसने १६३८ ई. में अपनी राजधानी परिवर्तन की योजना बनायी और इसके लिए जो स्थल चुना गया वह था शाहजहाँनाबाद। शाहजहाँनाबाद नामक नयी राजधानी की आधारशिला उसके द्वारा १६४९ ई. में रखी गयी। यह दिल्ली की सातवीं बसावट थी। इस नए नगर में शाही निवास के लिए शाहजहाँ ने ‘लाल-किले’ का निर्माण कराया। हमीद और अहमद जैसे गुनी वास्तुकारों की देखरेख में १६४८ ई. में एक करोड़ रुपये की लागत से लाल-किले का निर्माण कार्य संपन्न हुआ। 

 (चित्र: लाल किला)

उत्तर से दक्षिण की ओर इसकी संरचना समानान्तर चतुर्भुजाकार है। इसकी लम्बाई लगभग ३२०० फुट और चौडाई १६०० फुट है। नए बलुआ पत्थर के ऊँचे प्राचीर से घिरे लाल किले का नक्शा अठपहलू है। किले में तीन प्रवेश द्वार हैं।  पश्चिम दिशा में स्थित लाहौरी द्वार इसका मुख्य प्रवेश द्वार है जो कलात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट है। दक्षिणी द्वार को ‘दिल्ली द्वार’ कहा गया। किले के भीतर बाजार, नौबतखाना, शाही निवास, दरबार कक्ष, राजकीय संग्रहालय, राजकीय कक्ष, बरामदे, रसोई-गृह, अस्तबल, नौकरों के लिए निवास तो बने ही हैं साथ ही कई उत्कृष्टतम इमारतें भी इसे बेजोड़ बना देती हैं। इन इमारतों में ‘दरबारे-आम’, ‘दरबारे-ख़ास’ और ‘रंग-महल’ उल्लेखनीय हैं जो उस समय की शानो-शौकत और कलात्मकता का परिचय देते हैं। नदी के ऊपर के भाग में संगमरमर के अनेक मंडप और सुन्दर महल जैसे- मोती महल, हीरा महल और रंगमहल आदि एक ही शैली में निर्मित है। इन इमारतों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक छोटी-छोटी नहरों की व्यवस्था है जो कि आंशिक रूप से हम्मामों को पानी देने के लिए बनायी गयी थी। किले में जलापूर्ति के उद्देश्य से यमुना में ७० फुट का एक बाँध बनाया गया था जहां से पानी को एक नहर ‘नहरे-बहिश्त’ के द्वारा किले में पहुँचाया जाता था। यह नहर उत्तर-पूर्वी कोने में स्थित शाहबुर्ज से खुले केन्द्रीय मेहराबदार मंडप के संगमरमर के झरने से प्रवेश करती थी और वहीँ से नालियों के द्वारा सभी दिशाओं में विभक्त हो जाती थी। 

किले के अन्दर की सभी इमारतों में ‘दीवाने-ख़ास’ सर्वाधिक नियोजित और महत्वपूर्ण है। इसके बारे में कलाविद फर्ग्यूसन का कहना है कि ‘यह आगरे की इमारत से बड़ा तथा अलंकरण में उससे बहुत आगे है। हालांकि इसका डिजाइन इतना उत्तम नहीं है किन्तु इसके रत्न खचित सौन्दर्य की कोई तुलना नहीं है।, जिसने इसे काव्यमय स्वरुप प्रदान किया है।‘ इसके एक कक्ष में यह विख्यात वाक्य लिखा है कि ‘यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।’

ग़र फिरदौस बर रूये जमीं अस्त।
हमीं अस्त, उ हमीं अस्त, उ हमीं अस्त।।  
    
‘दीवाने-आम’ और ‘रंग-महल’ अन्य इमारतों से बड़े, अलंकारपूर्ण एवं श्रेष्ठ कला के परिचायक हैं। ये दोनों भवन खुले हुए और एकमंजिला मंडप की शक्ल के हैं। दीवाने-आम के पीछे की दीवार में एक कोष्ठ है जिसमें विश्वविख्यात ‘तख्ते-ताउस’ को रखा जाता था। इस कोष्ठक की दीवारों में जड़ावट का काम है। ‘रंग-महल’ बादशाह का निजी निवास था, जो अत्यन्त शोभायुक्त है। इसमें पर्दे के लिए पत्थर की जालियों का उपयोग किया गया है। महल के इस भाग में दीवारों पर चमकीले शीशे जड़ कर चित्रात्मक प्रभाव उत्पन्न करने की सार्थक कोशिश की गयी है।

 (चित्र: जामा-मस्जिद)

लाल किले से आधा किलोमीटर की दूरी पर शाहजहाँ ने दस लाख रुपये की लागत से भारत की सबसे बड़ी मस्जिद ‘जामा-मस्जिद’ का निर्माण कराया। इसमें तीन प्रवेश द्वार हैं। इसके पूर्वी प्रवेश द्वार से बादशाह शाहजहाँ नमाज पढ़ने जाता था जबकि उत्तरी और दक्षिणी प्रवेश द्वारों से सामान्य जनता जाती थी। मस्जिद के उपरी भाग पर तीन गुम्बद निर्मित किये गए जिनमें बीच का गुम्बद सबसे बड़ा है। मस्जिद के अग्र भाग में एक मेहराब बनी है और दोनों किनारों पर दो ऊँची मीनारें बनी हैं।

मस्जिद का चौरस आँगन लगभग सौ वर्ग मीटर में फैला हुआ है। जामा मस्जिद के स्थापत्य पर टिप्पणी करते हुए शान्ति स्वरुप लिखते है- ‘इसकी ऊँची कुर्सी पर चढ़ने के लिए सोपानों की लम्बी कतार, विशाल चतुष्कोण, संगमरमर से निर्मित तीन विशाल गुम्बद और उत्तुंग मीनारें सम्पूर्ण रचना को अत्यंत प्रभावशाली और चित्रात्मक बना देती है।’ 

आगरे में शाहजहाँ ने एक से बढ़ कर एक बेहतरीन इमारतें तैयार कराईं। दीवाने-आम, मच्छी भवन, दीवाने-ख़ास,शीश महल, ख़ास महल, अंगूरी बाग़, झरोखा दर्शन, मुसम्मन बुर्ज शाही मस्जिद, नगीना मस्जिद, मोती मस्जिद, जामा मस्जिद और ताजमहल आगरा की ही नहीं अपितु मुग़ल स्थापत्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। दीवाने-आम एक खुली इमारत है जिसे शाहजहाँ ने १६२८ ई. में बनवाया था। इसकी लम्बाई २०१ फुट और चौडाई ६७ फुट है। यह हाल तीन ओर से खुला है। हाल के चौथी ओर बीच में एक ऊँची लम्बी गैलरी है जो पित्रा-ड्यूरा के सुन्दर, जडाऊ और उभरी फूल-पत्तियों से सुसज्जित की गयी है। इस गैलरी या मंडप में सम्राट सिंहासन पर बैठता था। शाहजहाँ के काल में शाही सिंहासन शुद्ध सोने और रत्नों का बना हुआ था। यह तख्ते-ताउस या मयूर सिंहासन के नाम से जाना जाता है। यह बेबादल खां की देख-रेख बना था। यह साढ़े तीन गज लम्बा ढाई गज चौड़ा औए पांच गज ऊँचा था। यह पन्ने के बारह खम्भों पर आधारित था जिनके ऊपर रत्नों से सजे हुए दो-दो मोर बने हुए थे। इन मोरों के बीच लाल, हीरों, पन्नों और मोतियों से जड़ा एक-एक पेड़ था। सम्राट के आसन तक पहुँचने के लिए इसमें तीन रत्नजड़ित सीढियाँ बनी हुई थीं। कारीगरों के वेतन को छोड़ कर इस सिंहासन को बनाने में प्रयुक्त सामग्री को बनाने में एक करोड़ रूपया लगा था। 

दीवाने-आम के पीछे मच्छी भवन स्थित है। लाल पत्थर की बनी यह इमारत ६० गज लम्बी और ५५ गज चौड़ी है। इसके पहली मंजिल पर तीन इमारतें और कार्यालय है जिनमें रत्नों का कोषागार महत्वपूर्ण है। मच्छी भवन के सहन में सफ़ेद संगमरमर के अनेक सरोवर थे जिनमें शाही परिवार के लोग मनोरंजन के लिए मछलियों का शिकार किया करते थे। मच्छी भवन के ऊपर पश्चिम में यमुना नदी के ऊपर दीवाने-ख़ास बना हुआ था। यह विशेष दरबार था जिसमें चुनिन्दा लोग ही भाग लेते थे। सफ़ेद संगमरमर की इस आयताकार इमारत की लम्बाई ६४ फुट ९ इंच, चौड़ाई ३४ फुट और ऊँचाई २२ फुट है। इसमें दो हाल बने हैं जो स्थापत्य कला के अनुपम नमूने हैं। दीवाने ख़ास के पीछे शीश महल बना हुआ है जिसकी दीवारें और दरवाजे शीशे से जडित हैं। दीवाने ख़ास के सामने के सहन के नीचे सोने के सिक्कों और अशर्फियों को सुरक्षित रखने के लिए कोषागार बने थे। दीवाने ख़ास से बिलकुल लगा हुआ खास-महल है जिसे केवल सम्राट और साम्राज्ञी के रहने के लिए बनवाया गया था। ख़ास महल के नीचे का भाग लाल पत्थर का बना है जबकि इसका सम्पूर्ण उपरी भाग सफ़ेद संगमरमर का बना है। इसके सुसज्जित आरामदेह कक्ष वैदूर्य मणि, गोमेद, सूर्यकान्त, पुखराज और लालों से सभी ओर से दमकते रहते हैं। ख़ास महल के सामने २३५ फुट लम्बा और १७० फुट चौड़ा अंगूरी बाग़ है। इसके तीन ओर कमरों की कतारें हैं। ये कमरे मुग़ल हरम की महिलाओं के लिए बनवाये गए थे। चौथी ओर संगमरमर का एक बड़ा मंडप है जिसके सहन में अंगूरी बाग़ नामक एक सुन्दर बागीचा लगवाया गया था। ख़ास महल के बगल में सफ़ेद संगमरमर का झरोखा दर्शन बना है। प्रत्येक दिन सुबह बादशाह यहाँ जनता को दर्शन देने आया करता था। इस दौरान वह प्रजा की शिकायतें सुनता था और उसका निराकरण भी तत्काल कर देता था। 
          (चित्र: मुसम्मन बुर्ज)

ख़ास महल के उत्तर में स्थित मुसम्मन बुर्ज को शाहबुर्ज भी कहा जाता है जिसे शाहजहाँ ने सफ़ेद संगमरमर से बनवाया था। यह छःमंजिली इमारत है और अठपहलू है। मुसम्मन बुर्ज से मुग़ल हरम की स्त्रियाँ नीचे खुले मैदान में होने वाले पशु युद्धों को देखा करता था। इसके दूसरी ओर बादशाह संगमरमर के सिंहासन पर बैठता था। शाहजहाँ ने अपने बन्दीजीवन के आठ वर्ष (१६५६-१६६६ ई.) यहीं बिताए। इस दौरान शाहजहाँ ने अपनी प्रियतमा बेगम के मकबरे ताजमहल की ओर देखते हुए अपनी अंतिम सांस ली थी। मच्छी भवन के उत्तर-पश्चिमी सिरे पर एक छोटी सी सफ़ेद संगमरमर की मस्जिद बनी है जिसे नगीना मस्जिद कहा जाता है। इसे हरम की महिलाओं के लिए ख़ास तौर पर बनवाया गया था। 

(चित्र: मोती मस्जिद) 

आगरे के किले में सबसे सुन्दर इमारत है –मोती मस्जिद। दीवाने-ख़ास के उत्तर में स्थित इस मोती मस्जिद की लम्बाई २३७ फुट और चौडाई १८७ फुट है। इसका बाहरी भाग लाल पत्थरों से और भीतरी भाग संगमरमर से निर्मित है। इसके वर्गाकार आँगन के चारों ओर सफ़ेद पत्थरों से निर्मित वीथिका एवं स्तम्भयुक्त बरामदा है। मस्जिद के अन्दर दोनों तरफ संगमरमर के जालीदार पर्दों की व्यवस्था है जबकि उपरी भाग में सुडौल गुम्बद और सुन्दर मीनार शोभायमान है। मोती मस्जिद की नींव १६४८ ई. में डाली गयी और यह १६५३ ई. में बन कर तैयार हो गयी। इसके निर्माण पर तीन लाख रुपये की लागत आई थी। कलाविद पर्सी ब्राउन के अनुसार ‘मोती मस्जिद अपनी निर्दोष निर्माण सामग्री एवं अपने अंगों की कौशलपूर्ण नियंत्रित रचना के कारण चरमोत्कर्ष पर पहुंची हुई मुग़ल कला का प्रतिनिधित्व करती है।‘

किले के मुख्य द्वार से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर सामने जामा मस्जिद निर्मित है। इसका निर्माण बादशाह शाहजहाँ की बड़ी पुत्री जहाँआरा बेगम ने कराया था। यह एक ऊँची कुर्सी  पर लाल पत्थर की बनी हुई है। मुख्य इमारत १३० फुट लम्बी और १०० फुट चौड़ी है। यह तीन भागों में विभाजित है और इन तीनों भागों के उपर तीन सुन्दर गुम्बद बने हुए हैं। इन गुम्बदों के बाहरी भाग सफ़ेद संगमरमर और लाल पत्थर के जडाऊ काम से सुसज्जित है। यह मेहराबों की कतारों पर आधारित है। ‘मस्जिद की छत के प्रत्येक कोने पर एक-एक अठपहलू गुम्बदयुक्त छतरी है और इसका आग्र भाग छोटी-छोटी अनेक छ्तरियों की पंक्तियों से सुसज्जित है। केन्द्रीय भाग की छ्त के चारों कोनों पर चार पतली सुन्दर मीनारें निकलती हैं।’ इसका निर्माण आम जन के उपयोग के लिए किया गया था। इस मस्जिद के एक अभिलेख के अनुसार इसका निर्माण १६४८ ई. में कराया गया था। इसके निर्माण पर ५ लाख रूपये की लागत आई थी।


 (चित्र: ताज महल)
ताजमहल
ताजमहल मुग़ल स्थापत्य की चरम परिणति है जिसका निर्माण शाहजहाँ ने अपनी पत्नी और प्रियतमा मुमताजमहल की स्मृति में कराया था। ताजमहल आगरा के किले से लगभग एक मील पूर्व दिशा में यमुना किनारे स्थित है। ताजमहल की योजना किसने बनायी थी? इस बात को लेकर विद्वानों में मतभेद है।  फादर मेनरिख के अनुसार ताज की योजना एक वेनेशियन कलाकार जिरोनिमो वेरोनियो ने तैयार की थी। प्रख्यात कलाविद ई. बी. हावेल और पर्सी ब्राउन ताज की यूरोपीय उत्पत्ति के मत को खारिज करते हुए कहते हैं कि ताजमहल की शैली पूर्णरूपेण भारतीय है आधुनिक शोधों से भी यह स्पष्ट होता है कि ताजमहल का नमूना शाहजहाँ के प्रधान कारीगर उस्ताद अहमद लाहौरी ने तैयार किया था जिसे बादशाह ने ‘नादिर-उल-अस्र’ की उपाधि से सम्मानित किया था। अब इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस बेजोड़ स्मारक की मोटी रूपरेखा खुद बादशाह ने बनायी थी। क्योंकि कोई भी दूसरा व्यक्ति ऐसी कोई योजना नहीं सुझा सकता था जो बादशाह के मन की रूपरेखा से पूरी तरह मेल खा सके। और यह जगजाहिर है कि शाहजहाँ खुद कला का बड़ा पारखी और स्वप्नदर्शी था। ताज का प्रमुख कलाकार उस्ताद ईसा खां था जिसकी सहायता मोहम्मद हनीफ, अमानत खां, मोहम्मद खां, मोहम्मद शरीफ़, इस्माईल खां, मोहनलाल और मोहम्मद काजिम जैसे इस समय के श्रेष्ठ कलाकारों ने की। यमुना के घुमावदार किनारे पर स्थित एक ऊँचे भू-भाग को ताज के निर्माण के लिए चुना गया। इसके निर्माण में कुल २२ वर्ष का समय लगा। जबकि ५० लाख रुपये की लागत से यह निर्मित हुआ। 
                       
पर्सी ब्राउन के अनुसार ताजमहल के मुख्य इमारत की स्थापत्य कला शैली दिल्ली स्थित हुमायूं के मकबरे तथा खानखाना के मकबरे पर आधारित है जबकि ताज के केन्द्रीय बड़े गुम्बद की बनावट ईरानी और छोटे-छोटे फैले आधार के गुम्बद की शैली स्थानीय है। कलाविद हैवेल के अनुसार ताज की इमारती योजना के  मूल को जावा के प्रामबनम के चंडी सेवा मंदिर में देखा जा सकता है। यह मंदिर १०९८ ई. में भारतीय हिन्दू परम्परा के अनुसार बनाया गया है। जबकि इसके गुम्बद की शैली इस्लामिक है। मतभिन्नता के बावजूद दोनों कलाविद इस बात पर सहमत हैं कि बनावट, शैली और कारीगरी में ताजमहल पूर्णतः भारतीय है। 
         
१८७ फुट चौड़े और २३४ फुट लम्बे आकार में यमुना के तट पर स्थित ताजमहल एक ऊँची चहारदीवारी से घिरा है जिसके चारों कोनो पर चार चौड़े-चौड़े मेहराबयुक्त मंडप है। ताज का सज्जायुक्त एक प्रवेश द्वार है जिसके दोनों पार्श्वों में महाराबी कक्षों की लम्बी-लम्बी कतारें हैं। अहाते के अन्दर एक वर्गाकार उद्यान है जिसके उत्तरी सिरे पर संगमरमर का एक चबूतरा है। इसी चबूतरे पर २२ फुट ऊँची मेधि पर मुमताज महल का सफ़ेद संगमरमर का १०८ फुट उंचा मकबरा है। इसके प्रत्येक कोने पर एक-एक छतरी और और बीच में १८७ फुट ऊँची सुन्दर-सुडौल गुम्बद है। इसके चबूतरे के चारो कोनो पर १३७ फुट ऊँची तिमंजिली मीनारें उपरी छतरी सहित निर्मित है। मकबरे की इमारत जितनी चौड़ी है उतनी ही ऊँची है। ताज के अन्दर एक अठपहलू केन्द्रीय विशाल कक्ष है जिसके नीचे तहखाना है और ऊपर एक मेहराबी डाटदार कक्ष है। मुमताज की कब्र इसी कक्ष के बीचोबीच है। बाद में शाहजहाँ की कब्र भी इसके बगल में बना दी गयी। इमारत के प्रत्येक भाग में जालीदार झांझरियों और पर्दों से प्रकाश पहुंचता रहता है। पर्सी ब्राउन के अनुसार ‘ताजमहल में जड़ाई के काम यानी पित्रा-ड्यूरा में भारतीय कलाकारों का अनुपम धैर्य और कौशल स्पष्ट है। इसकी सरल योजना, लयात्मक वितरण और सम्पूर्ण इमारती एकता में अंगों के परस्पर कुशलता पूर्वक समन्वय के कारण इस सम्पूर्ण इमारत की रचना का प्रभाव हमारी सौन्दर्यानुभूति पर बड़ा ही प्रेरणास्पद पड़ता है। ताजमहल में प्रकाश बदलने से आश्चर्यजनक रूप से विचित्र हलके रंगों की छायाएँ और आभाएँ आ जाती हैं जो अत्यंत मनोहारी छटा बिखेरती है।‘

मुमताज महल की मृत्यु के बाद ताज का निर्माण शुरू हुआ जो सत्रह वर्षों में १६४८ ई. में बन कर तैयार हुआ। इसके निर्माण में बीस हजार मजदूर प्रतिदिन जुटे रहे जिसमें नौ करोड़ रुपये से अधिक का खर्च हुआ। ताज के निर्माण में मकराना के संगमरमर का उपयोग किया गया। कुछ लोगों ने इसे मूलतः एक राजपूत महल सिद्ध करने की निर्मूल कोशिश की जिसे बाद में मकबरे का रूप दे दिया गया। लाहौरी के ‘बादशाहनामा’ और ‘अमल-ए-सालेह’ नामक ग्रंथों से यह साफ़ स्पष्ट है कि यद्यपि यह जमीन राजा जयसिंह से प्राप्त की गयी थी किन्तु इसका निर्माण कार्य नींव से प्रारम्भ हुआ।
कुल मिलाकर ताज महल मुमताज की स्त्रियोचित सुन्दरता को बड़े ही सुन्दर रूप में परिलक्षित करता है और इसी बिना पर हैवेल ने इसे ‘भारतीय स्त्री जाति का देवतुल्य स्मारक’ कहा है। यह एक आदर्शपूर्ण कल्पना है जो स्थापत्य कला की अपेक्षा शिल्पकला से अधिक सम्बन्धित है। यह एक ऐसी कविता है जिसमें सम्राट ने अपनी साम्राज्ञी के प्रति अतीव प्रेम की कहानी को गाया है। क्योंकि यह इतनी अधिक मानवीय है और यह उस चिर शान्ति को जो अमर-प्रेमियों की कब्रों पर छाई हुई है, जैसे वाकशक्ति प्रदान करती है। शाहजहाँ की महत्वाकांक्षा कि वह मुमताज की स्मृति को दिग-दिगंत तक बनाए रख सके, को ताजमहल ने जैसे साकार कर दिया। आज अगर इसकी गणना दुनिया के महानतम आश्चर्यों में की जाती है तो इसमें चकित होने जैसी कोई बात नहीं। वस्तुतः ताजमहल इसका हकदार भी है। 

औरंगजेब के काल में मुग़ल स्थापत्य

औरंगजेब का सम्पूर्ण जीवन विद्रोहों के दमन और युद्धों में बीता इस वजह से वह कला की तरफ ध्यान न दे सका। वैसे राजनीति में उसकी दिलचस्पी इतनी अधिक थी कि ललित कला के प्रति वह प्रायः उदासीन ही बना रहा। फिर भी उसने कुछ इमारतों का निर्माण कराया जो उसके पूर्वजों द्वारा बनवाई गयीं इमारतों की तुलना में कहीं भी नहीं ठहरतीं।

दिल्ली के लाल किले के अन्दर कोई मस्जिद नहीं थी। इसी के मद्देनजर उसने संगमरमर की मोती मस्जिद का निर्माण कराया। औरंगजेब ने दक्षिण में औरंगाबाद में अपनी प्रिय बेगम राबिया-उद-दौरानी की स्मृति में एक मकबरे का निर्माण कराया। इसका स्थापत्य बहुत कुछ ताजमहल से मिलता-जुलता है। इसीलिए इसे द्वितीय ताजमहल की संज्ञा भी दी जाती है। परन्तु ताजमहल की नक़ल होते हुए भी यह आकार और रचना कौशल में उससे कोसो दूर है। फिर भी इस मकबरे में कब्र के चारो ओर सफ़ेद संगमरमर के अठपहलू परदे और उनकी उभरी डिजाईनों में सुन्दर कारीगरी दिखाई पड़ती है। इसके लोहे के दरवाजों और उनके किनारों पर फूल-पत्तियों की जो सुन्दर बेले गढ़ी गयी हैं  वे उस समय की धातुकला की उत्कृष्टता को प्रमाणित करती है।

 (चित्र: राबिया-उद-दौरानी का मकबरा)

औरंगजेब के समय बनी इमारतों में लाहौर की बादशाही मस्जिद और जामी मस्जिद अपनी रचना एवं विशालता के कारण ख्यात है। ये प्रायद्वीप की बड़ी मस्जिदों में से एक है। किन्तु स्थापत्य कला की दृष्टि से दिल्ली की जामी मस्जिद की घटिया नकल है। शान्तिस्वरुप के अनुसार ‘सामान्यतः इसमें नयी प्रवृत्ति प्रत्यक्ष दिखती है, जिसमें सबलता एवं सादगी है किन्तु इसके अलंकरण में पहले युग जैसी श्रेष्ठता नहीं है। धार्मिक कट्टरता के वशीभूत हो कर औरंगजेब ने बनारस में काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में वीर सिंह बुन्देला द्वारा निर्मित केशवदेव मंदिर के स्थान पर मस्जिदों का निर्माण कराया। लेकिन ये दोनों मस्जिदे मुग़ल स्थापत्य के गिरते स्तर की ही परिचायक हैं। इसी काल में दक्षिण भारत में कुछ महत्वपूर्ण इमारतों का निर्माण कराया गया। बीजापुर शहर के चारो ओर एक परकोटा बनवाया गया जिसमें कई प्रवेश द्वार थे। इसके भीतर महलों सहित मस्जिदें और मकबरे भी थे। यह स्थानीय गहरे भूरे रंग के पत्थर से बनाया गया है जो देखने में अच्छा नहीं लगता। बीजापुर का गोल गुम्बद अपनी तरह का सबसे विशाल गुम्बद है जो १८००० वर्ग फुट से अधिक स्थान घेरे हुए है। दूसरी महत्वपूर्ण इमारत अली आदिल शाह की जामी मस्जिद है लेकिन यह अपूर्ण है। इब्राहिम का रोजा बीजापुर की अंतिम प्रमुख इमारत है जिसमें सुलतान इब्राहिम द्वितीय का मकबरा और उससे जुडी एक मस्जिद है। इस समय खान देश में भी कुछ ऐतिहासिक इमारतें बनवाई गयीं जिनमें बुरहानपुर का महल, थालनेर के कुछ मकबरे और मस्जिदें उल्लेखनीय हैं। अट्ठारहवीं सदी की दूसरी महत्वपूर्ण इमारत दिल्ली में स्थित अवध के वायसराय सफदरजंग का मकबरा है जिसका निर्माण मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह के राज्य काल (१७१९-४८ ई.) के अंतर्गत कराया गया। बागयुक्त मकबरे का यह अंतिम नमूना है जिसे हुमायूं के मकबरे की तर्ज पर बनवाया गया।                                                                        

इस प्रकार मुग़ल स्थापत्य कला का विकास विभिन्न चरणों में हुआ। प्रख्यात मुग़ल शासकों ने  कला में पर्याप्त रुचि लेकर इसे बढ़ावा दिया। अकबर और जहांगीर के समय में इस स्थापत्य कला ने राष्ट्रीय कला का रूप ले लिया। कला के पारखी बादशाह शाहजहाँ ने अपनी कल्पनाशीलता और कलात्मक अभिरूचि को संगमरमरी इमारतों में ढाल दिया और उसके समय में एक से बढ़ कर इमारतों का निर्माण कार्य कराया गया। इसी समय बनवाया गया मुमताज महल का मकबरा आगरा का ताजमहल तो इस कदर खूबसूरत निर्माण बन पड़ा कि कलाविदों ने इसे संगमरमर में ढाली गयी कविता तक की उपमा दे डाली। आपने यह भी जाना कि एक लम्बे समय तक शासन करने और अपेक्षाकृत शान्ति-व्यवस्था के वातावरण ने इन महान निर्मितियों को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। कहना न होगा कि आज भी जब कोई देशी-विदेशी पर्यटक इन इमारतों को देखने जाता है तो वह इनका निर्माण देख कर चकित रह जाता है और इन्हें बार-बार देखने के बावजूद वह हर बार एक अलग तरह का अलौकिक आनन्द प्राप्त करता है।
           
इस खंड के लिए कुछ उपयोगी पुस्तकें 
   
ब्राउन, पर्सी; इन्डियन आर्किटेक्चर (इस्लामिक पीरियड), ऑक्सफ़ोर्ड, १९२४   
चोपड़ा, पी. एन., बी. एन. पुरी, एम. एन. दास; भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास, भाग- दो, मैकमिलन, पटना, १९७५         
दास, ब्रजरत्न द्वारा अनुदित जहांगीर का आत्मचरित
अबुल फजल; आईन-ए-अकबरी
फर्ग्यूसन, जे.: हिस्ट्री ऑफ़ इन्डियन एंड इस्टर्न आर्किटेक्चर, (दो भागों में) १८९९ न्यूयार्क,
मजूमदार, रमेश चन्द्र, हेमचन्द्र राय चौधरी, कालिकिंकर दत्त; भारत का वृहद् इतिहास, भाग-दो, मैकमिलन, दिल्ली, १९५४    
पाण्डेय, राजेन्द्र; भारत का सांस्कृतिक इतिहास, लखनऊ, १९७६   
प्रसाद, बेनी; हिस्ट्री ऑफ़ जहाँगीर, इलाहाबाद, १९७६
राधेश्याम, मध्यकालीन प्रशासन समाज एवं संस्कृति, इलाहाबाद, १९९३  
रालैंड, बेंजामिन; द आर्ट एंड आर्किटेक्चर ऑफ़ इण्डिया, पेंगुइन, १९७७   
सक्सेना, बनारसी प्रसाद: हिस्ट्री ऑफ़ शाहजहाँ ऑफ़ देलही, इलाहाबाद, १९६२ 
शर्मा, एल. पी.; मध्यकालीन भारत, आगरा, १९७५   
स्मिथ, विसेंट: अकबर दि ग्रेट मुग़ल, दिल्ली, १९६२
श्रीवास्तव, ए. एल.; अकबर द ग्रेट मुग़ल (तीन भाग में); द मुग़ल एम्पायर (१५२६-१८०३); मध्यकालीन भारतीय संस्कृति
वर्मा, हरिश्चन्द्र (संपा.), मध्यकालीन भारत खंड-२ (१५४०-१७६१ई.), दिल्ली विश्वविद्यालय, १९९३ 
 

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