गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

गणेश पाण्डेय का आलेख 'संतोष चतुर्वेदी : दुख और संघर्ष का कवि'




संतोष चतुर्वेदी : दुख और संघर्ष का कवि

गणेश पाण्डेय


 
पानी यानी ज़िंदगानी का कवि संतोष चतुर्वेदी जीवन के सुखमय वृत्तांत का कवि नहीं है बल्कि जीवन के दुख और संघर्ष का कवि है, उसकी चिंता में जीवन और समाज दोनों की मुश्किलों के अंत की खोज है। संतोष की कविता का जीवन खाते-पीते अर्थात् अघाये हुए लोगों का संसार नहीं है।
मामूली लोगों के मामूली जीवन की मुश्किलों के बीच जीवन के उन तत्वों की पहचान है जिनमें जीवन को बचाये रखने की शक्ति है, एक युवा, पर हुनरमंद कवि पानी को जीवन की साधारण झाँकी तक सीमित नहीं करता है, पानी के रंग को जीवन के रंग अर्थात् जीवन के अर्थ, जीवन की जिजीविषा और सबसे बढ़ कर सामान्य जन के मुश्किल जीवन की अपराजेयता का गतिशील आख्यान बना देता है-

अनोखा रंग है पानी का
सुख में सुख की तरह उल्लसित होते हुए
दुःख में दुःख के विषाद से गुज़रते हुए
कहीं कोई अलगा नहीं पाता
पानी से रंग को
रंग से पानी को
कोई छननी छान नहीं पाती
कोई सूप फटक नहीं पाता
और अगर ओसाने की कोशिश की किसी ने
तो ख़ुद ही भीग गया वह आपादमस्तक

संतोष की कविता में जीवन का वह परिसर है जो एक विचारसंपन्न कवि का इलाक़ा होता है, ज़ाहिर है कि हाशिये के जीवन का दर्द और कठिनाइयाँ देखना और उनके अंत के लिए एक छोटी-सी अर्थपूर्ण कोशिश में संतोष की कविता अपने को अर्थ देती है-

हाशिये को दरक़िनार कर
दरअसल जब भी लिखे गये शब्द
भरी गयीं पँक्तियाँ
किसी हड़बड़ी में जब भी
बाइण्डिंग के बाद
लड़खड़ा गयी पन्ने की शक्ल
अपठनीय हो गयी
वाक्यों की सूरत
  1. दरअसल यह वाक्य, गद्य का एक टुकड़ाभर नहीं है। जीवन के गद्य का टुकड़ा है। सच तो यह कि पृथ्वी और समाज के गद्य का टुकड़ा है। ज़ाहिर है कि यहाँ निराला का इस छोटे-से वाक्य की याद आएगी ही - गद्य जीवन संग्राम की भाषा है। आज कविता भाषा की कीमियागीरी नहीं है, प्रकृति के सुरम्य झुरमुट में प्रिया संग छिप जाने की कला नहीं है, चाँद संग कल्पना के उड़नखटोले में बैठकर सीमित रस, जीवन की तरलता से वंचित शुष्क छंद-अलंकार और जीवन के अनगढ़पन, उसकी टूटफूट और उसकी विपन्नता को छिपाने की युक्ति नहीं है। आज कविता जीवन की नसों में बहने वाली वह तरलता है, संवेदना और विचार का वह घोल है जिसमें मनुष्य के दिल और दिमाग को जीवन देने की शक्ति है, युवाओं की बंद मुटिठयों को हवा में लहराने की ताक़त है। कविता सिर्फ़ रानी की बिटिया की लोरी नहीं है, उस नन्ही कानी के कंठ का भी गीत है। कानी की फूटी आँख की दिव्यज्योति है, जिसका स्रोत कोई अध्यात्म नहीं है, बल्कि हाशिये के जीवन की असंख्य बेड़ियों को काटने का जज्बा है।

कविता और कहानी से हर दौर में बेज़ा काम लिया गया है, विमर्शों के नाम पर भी भाईलोगों ने स्त्री की पीड़ा की आड़ में देह के मज़े का सौदा बाक़ायदा हंस की पीठपर लादकर बेचा है। कविता में भी गैस त्रासदी में मारे गये लोगों के लिए शोक व्यक्त करने की जगह कविताकुमारी सेबदसलूकी करने वाले कवि भी इसी काल में हुए हैं। खाये-पिये और अघाये लोगों ने हिन्दी साहित्य को तोंदवालों की महफ़िल बनाने की हज़ार नाकामयाब कोशिशें की हैं। नया कवि इस तरह के झाँसे में नहीं फँसता है। अलबत्ता नये कवि को ये घाघ फुसलाकर नाम-इनाम का बेहद मीठा ज़हर पिलाने में कामयाब हो जाते हैं। उसके बाद ये घाघ मठाघीश नये बच्चों का अपना नकलची बंदर बनाकर जहाँ-तहाँ मजमा लगाते हैं-नचाते हैं।

नये कवियों की भी तीन कोटि होती है। एक तो वे सीधे-सादे युवा कवि जो अनजाने में सिर्फ़ नाम-इनाम के आकर्षण में खिंचे चले जाते हैं इन घाघों के पास। ये कविता के भटके हुए राजकुमार होते हैं। दूसरी तरह के युवा कवि जानबूझकर पैदा होते ही अमर होने की तीव्र आकांक्षा से स्वपीड़ित होते हैं और देखते ही मठाधीशों की पीठपर कूदकर सवार हो जाते हैं, चाहे चरणरज बनकर चरणपादुका से अहर्निश चिपके रहते हैं, यदि ये भी मेरे लिए बच्चों जैसे न होते तो इन्हें यहाँ हिन्दी के हरामजादे कहता, हाँ हरामजादे नहीं कहूँगा लेकिन इन्हें फटकारकर कहूँगा कि ये बेईमान बच्चे कबीर, निराला, मुक्तिबोध के साहबजादे नहीं हैं। तीसरी कोटि उन युवा कवियों की है जो नाम-इनाम के इस खेल से बाहर हैं और चुपचाप अपना काम कर रहे हैं, ज़ाहिर है कि ये बच्चे ही बड़ी कविता और बड़े कवियों के सच्चे वारिस हैं। यहाँ स्पष्ट करना चाहूँगा कि इसी समाज में काम करना है तो हर तरह के लोग मिलेंगे, लेकिन प्रिय वही होगा, जिसके पास कविता के ईमान का कम से कम एक कण ज़रूर होगा।

यात्रा के लिए आयी कविताओं में ईमान वाली कविताएँ देर तक अपने संग बाँध लेती हैं। हाथ पकड़ लेती हैं। अच्छी कविताओं पर रीझना ईमान वाले आलोचक का स्वभाव होता है। बेईमान आलोचक तो पैर दबाने से प्रसन्न होते हैं, बदले में पोलियोग्रस्त कविताओं पर नाम-इनाम और प्रकाशन की ऊँची दुकानों से छपने का आशीष अलग से दे रहे होते हैं। ज़ाहिर है कि राजधानी की सबसे बड़ी घड़ी से निकले इस बुरे समय में तीसरी कोटि के कवियों के सामने चुनौतियाँ अधिक हैं, लेकिन कविता ही बचाएगी उन्हें, उनका ईमान ही बचाएगा उन्हें। कविता का ईमान है तो खुश रहो बच्चो, कविता के ईमान की ताबीज़ हिन्दी के भूतों-प्रेतों को तुम्हारे पास आने नहीं देगी, बस ग़लती से तुम ईमान की ताबीज़ निकालकर उनके चमकीले तालाब में तैराकी करने मत जाना, नहीं तो.....नहीं तो कविता और आलोचना के ये मगरमच्छ तुम्हें नुकसान पहुँचा देंगे।

कवि भी हूँ, आलोचक भी हूँ, मेरी मुश्किल यह है कि आलोचना का मुंशी नहीं हूँ अर्थात् अकादमिक अर्थात् पाठ्यपुस्तकीय अर्थात् नखदंतहीन अर्थात् होम्योपैथ की मीठी गोलियाँ और सिर्फ़ मीठी गोलियाँ नहीं हैं। नये कवि से उसकी अच्छाइयों पर ही नहीं, बल्कि उसके वक़्त के बड़े खतरों के बारे में भी बात करूँगा। यह अलग बात है कि बात संतोष की कर रहा था और हिन्दी कविता के परिदृश्य से भारी असंतोष की बात करने लगा।

संतोष की कविता की धरती चौड़ी है, उसमें हाशिए का जीवन ही नहीं, रागात्मक संबंधों की मज़बूत दुनिया और अड़ोस-पड़ोस के जीवन-संदर्भां में भी वंचितों की चिंता और स्त्रीप्रश्न मौज़ूद हैं। ओलारमें इक्केवान की चिंता दरअसल कवि की ही चिंता है-

यह कैसा समय है भाई
मोटे और मोटाते-अघाते जा रहे हैं
कमज़ोर पतराते जा रहे हैं दिन-ब-दिन
ऐसे कैसे गाड़ी चल पायेगी भइया
इसी तरह सब होता रहा अगर
तब तो दुनिया ही ओलार हो जायेगी एक दिन


माँ का घरमें असंख्य माँओं के वुजूद का प्रश्न बेचैन करता है। पुरुष वर्चस्व की व्यवस्था में स़्त्री की जगह का प्रश्न पितृसत्तात्मक समाज के बरक्स स्त्री की स्थिति की वेदना माँ के चेहरे के साथ और सघन हो जाती है-

माँ और उनकी माँ और उनकी माताओं के नाम पर
हर जगह दिखायी पड़ी एक अजीब तरह की चुप्पी


जहिर है कि संतोष प्रतिबद्ध लेखक हैं, एक लेखक संगठन से जुड़े हुए कवि हैं, एक पत्रिका के दृष्टिसंपन्न सेपादक हैं, इसलिए उनकी कविता वैभव-विलास की कविता नहीं है, धरती के अंतिमजन के दर्द की कविता है, उसकी रोटी की चिंता की कविता है-

तवे का ताप
और एक ख़ास तरीक़े की उलट पुलट
साकार बनाती है
रोटी की दुनिया को।
रोटी की धरती
धरती की रोटी
सधे हाथों और कई संतुलनों से ही
ले पाती है आकार


संतोष जैसे तमाम युवा कवि सफर में आगे हैं, पर पड़ाव की हड़बड़ी में नहीं है, नाम-इनाम की तीव्र आकांक्षा से पीड़ित नहीं है। यही उनकी कविता की शक्ति है। उनकी कविता का सौंदर्य मोछू नेटुआ के जीवन की विडम्बना में निहित है। उसके ज़ोखिम में मौज़ूद है। हाशिया कवि के लिए हाशिया नहीं, कविता की धरती का ज़रूरी हिस्सा है। एक बात जिसे कहना ज़रूरी है, यह कि हिन्दी की ऊँची कक्षाओं के विद्यार्थी नहीं रहे हैं, रोटी इतिहास की खाते हैं, लेकिन हिन्दी की रोटी के लिए दुबले होते हैं। सधे हाथों और संतुलन सेकविता की रोटी बनाते हैं। (यात्रा, अंक-10, जुलाई-दिसंबर, 2015)

  गणेश पाण्डेय
839-सी, लच्छीपुर खास
(
राजेंद्रनगर पूर्वी) पो.- गोरखनाथ
गोरखपुर-273015
मो- 9450959317
yatra.ganeshpandey@gmail.com

 सृजनगाथा .कॉम से साभार