बुधवार, 22 अगस्त 2012

उमा शंकर चौधरी







बुजुर्ग पिता के झुके कन्धे हमें दुख देते हैं





मेरे सामने पिता की जो तस्वीर है
उसमें पिता एक कुर्ते में हैं
पिता की यह तस्वीर अध्ूारी है

लेकिन बगैर तस्वीर में आये भी मैं जानता हूं कि

पिता कुर्ते के साथ सफेद धोती में हैं

पिता ने अपने जीवन में कुर्ता-धोती को छोड़कर भी

कुछ पहना हो मुझे याद नहीं है

हां मेरी कल्पना में पिता

कभी-कभी कमीज और पैंट में दिखते हैं

और बहुत अजीब से लगते हैं



मेरी मां जब तक जीवित रहीं

पिता ने अपने कुुर्ते और अपनी धोती पर से

कभी कलफ को हटने नहीं दिया

लेकिन मां की जबसे मृत्यु हुई है

पिता अपने कपड़ों के प्रति उदासीन से हो गए हैं



खैर उस तस्वीर में पिता अपने कुर्तें में हैं

और पिता के कन्धे झूल से गए हैं

उस तस्वीर में पिता की आस्तीन

नीचे की ओर लटक रही हैं

पहली नजर में मुझे लगता है कि पिता के दर्जी ने

उनके कुर्ते का नाप गलत लिया है

परन्तु मैं जानता हूं कि यह मेरे मन का भ्रम है

पिता के कन्धे वास्तव में बांस की करची की तरह

नीचे की तरफ लटक ही गए हैं



पिता बूढेे हो चुके हैं इस सच को मैं जानता हूं

लेकिन मैं स्वीकार नहीं कर पाता हूं

मैं जिन कुछ सचों से घबराता हूं यह उनमें से ही एक है



एक वक्त था जब हम भाई-बहन

एक-एक कर पिता के इन्हीं मजबूत कन्धों पर

मेला घूमा करते थे

मेले से फिरकी खरीदते थे

और पिता के इन्हीं कन्धों पर बैठकर

उसे हवा के झोंकों से चलाने की कोशिश करते थे

तब हम चाहते थे कि पिता तेज चलें ताकि

हमारी फिरकी तेज हवा के झोंकों में ज्यादा जोर से नाच सके



हमारे घर से दो किलोमीटर दूर की हटिया में

जो दुर्गा मेला लगता था उसमें हमने

बंदर के खेल से लेकर मौत का कुंआ तक देखा था

पिता हमारे लिए भीड़ को चीरकर हमें एक ऊंचाई देते थे

ताकि हम यह देख सकें कि कैसे बंदर

अपने मालिक के हुक्म पर रस्सी पर दौड़ने लग जाता था

हमने अपने जीवन में जितनी भी बार बाइस्कोप देखा

पिता अपने कन्धे पर ही हमें ले गए थे



हमारा घर तब बहुत कच्चा था

और घर के ठीक पिछवाड़े मेें कोसी नदी का बांध था

कोसी नदी में जब पानी भरने लगता था

तब सांप हमारे घर में पनाह लेने दौड़ जाते थे

तब हमारे घर में ढिबरी जलती थी

और खाना जलावन पर बनता था

ऐसा अक्सर होता था कि मां रसोई में जाती और

करैत सांप की सांस चलने की आवाज सुनकर

दूर छिटककर भाग जाती

उस दिन तो हद हो गई थी जब

कड़ाही में छौंक लगाने के बाद मां ने

कटी सब्जी के थाल को उस कड़ाही में उलीचने के लिए उठाया

और उस थाल की ही गोलाई में करैत सांप

उभर कर सामने आ गया



हमारे जीवन में ऐसी स्थितियां तब अक्सर आती थीं

और फिर हम हर बार पिता को

चाय की दुकान पर से ढूंढ कर लाते थे

हमारे जीवन में तब पिता ही सबसे ताकतवर थे

और सचमुच पिता तब ढूंढकर उस करैत सांप को मार डालते थे



हमारे आंगन में वह जो अमरूद का पेड़ था

पिता हमारे लिए तब उस अमरूद के पेड़ पर

दनदना कर चढ जाते थे

और फिर एक-एक फुनगी पर लगे अमरूद को

पिता तोड़ लाते थे

हम तब पिता की फुर्ती को देख कर दंग रहते थे

पिता तब हमारे जीवन में एक नायक की तरह थे



मेरे पिता तब मजबूत थे

और हम कभी सोच भी नहीं पाते थे कि

एक दिन ऐसा भी आयेगा कि

पिता इतने कमजोर हो जायेंगे

कि अपने बिस्तर पर से उठने में भी उन्हें

हमारे सहारे की जरूरत पड़ जायेगी



मेरे पिता जब मेरे हाथ और मेरे कन्धे का सहारा लेकर

अपने बिस्तर से उठते हैं तब

मेरे दिल में एक हूक सी उठती है और

मेरी देखी हुई उनकी पूरी जवानी

मेरी आंखों के सामने घूम जाती है



मेरे बुजुर्ग पिता

अब कभी तेज कदमों से चल नहीं पायेंगे

हमें अपने कन्धों पर उठा नहीं पायेंगे

अमरूद के पेड़ पर चढ नहीं पायेंगे

और अमरूद का पेड़ तो क्या

मैं जानता हूं मेेरे पिता अब कभी आराम से

दो सीढी भी चढ नहीं पायेंगे



लेकिन मैं पिता को हर वक्त सहारा देते हुए

यह सोचता हूं कि क्या पिता को अपनी जवानी के वे दिन

याद नहीं आते होंगे

जब वे हमें भरी बस में अंदर सीट दिलाकर

खुद दरवाजे पर लटक कर चले जाते थे

परबत्ता से खगड़िया शहर

क्या अब पिता को अपने दोस्तों के साथ

ताश की चौकड़ी जमाना याद नहीं आता होगा

क्या पिता अब कभी नहीं हंस पायेंगे अपनी उनमुक्त हंसी



मेरे पिता को अब अपनी जवानी की बातंे

याद है या नहीं मुझे पता नहीं

लेकिन मैं सोचता हूं कि

अगर वे याद कर पाते होंगे वे दिन

तो उनके मन में एक अजीब सी बेचैनी जरूर होती होगी

कुछ जरूर होगा जो उनके भीतर झन्न से टूट जाता होगा।



त त त

मां से पिता क्या बहुत दूर थे



- उमा शंकर चौधरी



जब मेरी मां पर हाथ उठाते थे मेरे पिता

तब मेरी मां बहुत ही कातर निगाह से

देखती थी मेरी ओर

मैं तब बहुत छोटा था और यह समझ नहीं पाता था कि

मेरी मां तब मेरी ओर इसलिए देखती थी कि

मैं उन्हें बचा नहीं सकता

या इसलिए कि उन्हें शर्म आती थी

यूं अपने बच्चे के सामने पिता के हाथों पिटते

लेकिन मुझे यह याद अवश्य है

कि मेरी मां की निगाह तब बार-बार मुझ पर आ जाती थी



मेरे पिता बहुत गुस्सैल थे

और अपने गुस्से के क्षणों में

अपने आप को बिल्कुल भी रोक नहीं पाते थे

पिता अपने गुस्से पर काबू क्यांे नहीं कर पाते थे

यह हम भाई-बहन कभी उनसे पूछ नहीं पाये



मैं तब बहुत छोटा था

लेकिन पिता जब भी मेरी मां पर हाथ उठाते थे

तब मुझे बहुत दुख होता था

मुझे बहुत बुरा भी लगता था

और दुख की क्या कहंे मुझे अपने पिता पर बहुत खीझ होती थी



पिता से तब मैं नफरत करता था

और इस नफरत को मैं ही नहीं पिता भी जानते थे



मेरी मां बहुत अच्छी थीं

इसलिए पिता मां पर हाथ क्यों उठाते हैं

यह सोचकर और भी ज्यादा दुख होता था



यह खीझ तब और भी बढ जाती थी

जब मां पिता के सामान्य क्षणों में

पिता का बहुत सम्मान करती थी



मां अपने पड़ोसियों से कहती

कि यह तो इसके पापा ही हैं

जो हमारा घर इतना संभला हुआ दिखता है

मेरा क्या है मैं तो अपने हिस्से की रोशनी कहीं भी रखकर भूल जाती हूं



इसके पिता ने अपनी जिन्दगी में

बहुत दुख देखे हैं

और फिर इस घर को इस तरह संजोया है



मां पिता की जब तारीफ करती थी

तब उनके चेहरे पर कभी भी नहीं दिखता था

पिता का क्रुद्ध चेहरा

और उस क्रुद्ध चेहरे के साथ उनके द्वारा उठाया गया उन पर हाथ





यूं ऐसा नहीं था कि

मेरे पिता मेरी मां को प्यार नहीं करते थे

या फिर ऐसा भी नहीं था कि मेरे पिता की जिन्दगी में

किसी और स्त्री का प्रवेश हो गया था

मेरे पिता ऐसे पुरुषवादी भी नहीं थे कि वे औरत को अपनी जूती समझें

बस पिता अपने गुस्से को रोक नहीं पाते थे



जब पिता काम से थक-हार कर लौटते

तब उनका पारा सातवें आसमान पर होता था

वे तब एक क्षण को भी खाना-पीना या किसी और प्रकार के आदेश में

विलम्ब बर्दाश्त नहीं कर पाते थे

पिता गुस्साते थे और पिता का सारा गुस्सा

मां पर ही निकलता था

पिता मां पर हाथ उठाते थे और मां कातर निगाह से मुझे देखती थी

मैं तब बहुत बच्चा था और मैं बहुत दुखी होता था



पिता जब गुस्से में होते थे तब

उन्हें देखकर ऐसा लगता था कि

वे अपनी जिन्दगी में सबसे ज्यादा नफरत मेरी मां से करते हैं

मुझे हर बार उनको देखकर ऐसा ही लगता था

कि क्या वाकई पिता मां से छुटकारा चाहते हैं



मेरी मां की मृत्यु कम उम्र में हुई

उनकी मृत्यु जब हुई तब वे पचास को भी छू नहीं पाई थीं

जब मां की मृत्यु हुई तब पिता बहुत रोये थे

और बहुत रोये क्या थे पछाड़ खाकर गिर पड़े थे

और फिर कई दिनों तक होश में नहीं आये थे

तब हमें लगा था कि पिता का व्यक्तित्व भी अजीब है



लेकिन यह व्यक्तित्व तब और भी अजीब लगा था जब

पिता ने मां की मृत्यु के बाद से बोलना बिल्कुल कम कर दिया था

उसके बाद हमने हंसते हुए भी उन्हंे कम ही देखा था

लेकिन सबसे अजीब यह था कि

पिता ने गुस्सा करना बिल्कुल छोड़ दिया था



मां की मृत्यु के इतने बरस बाद

पिता को देखकर यह लगता ही नहीं है कि

ये पिता वही पिता हैं जो कभी गुस्से मंे अपना आपा

इतना खो देते थे कि मां को कातर निगाहों से मुझे देखना पड़ता था

पिता अब एक सौम्य पिता हो गये हैं



जब से मां की मृत्यु हुई पिता ने गुस्साना छोड़ दिया है

पिता बस जीवन को जिये जा रहे हैं

पिता एक बेजान पत्थर से बन गए हैं



मैं इतने बरस बाद

मां और पिता के इस अजीबोगरीब संबंध पर विचार करता हूं

तो बहुत मुश्किल में फंस जाता हूं

कि क्या वाकई पिता मां को बहुत प्यार करते थे

कि पिता कभी समझ ही नहीं पाये कि वे

अपने प्रेम से भी उपर पहले और सबसे पहले एक पुरुष थे

जिसकी उनको खबर भी नहीं थी।





त त त









कामुक बातें करता बुजुर्ग



कामुक बातें करता बुजुर्ग

हमें तकलीफ देता है

कामुक बातें करते बुजुर्ग के पास बैठकर

हमें हमेशा ऐसा लगता है जैसे

हमारे समाज, हमारी संस्कृति को गंदला करने में

सबसे बड़ा हाथ इसी का है।



हम बुजुर्ग के पास बैठते हैं

और बुजुर्ग हमसे स्त्रियों की बातें करने लगता है

सहवास के दौरान की स्त्रियों की विभिन्न मुद्राओं की बातें करना

तो उसका सबसे बड़ा शगल है

और यह भी कि सहवास के दौरान स्त्रियों का कौन सा होता है

सबसे कम्फर्ट जोन।



हम बुजुर्ग के सामने होते हैं और

बुजुर्ग की आंखों में शर्म की कोई महीन रेखा तक नहीं दिखती है

और न ही दिखती है कोई बंदिश

कोई हद

वह अपने को अनुभवी मान स्त्रियों के संग-साथ के

विभिन्न अनुभवों को हमसे साझा करता है

और फिर जोर से ठठा मारकर हंस देता है।



वह प्र्रायः याद करने लग जाता है अपनी जवानी के दिन

कि अपनी प्रेमिकाओं के साथ वह किस तरह

छुप-छुप कर और बहाने बनाकर किया करता था छेड़छाड़

कि बिना एक-दूसरे को खबर हुए

अपने आजू-बाजू में कैसे वह रख लेता था

दो-तीन प्रेमिकाओं को एक साथ

बताने के क्रम में वह यह भी बता जाता है

कि कितनी प्रेमिकाओें के साथ वह चला गया था कितनी दूर

भले ही किया हो उसने प्रेम-विवाह और उसे निभाया हो उसने ता-उम्र

लेकिन वह बुजुर्ग कहता है हमसे

कि स्त्रियां तो प्रेम करने के लिए बनी ही नहीं है

वह कहता है कि एक प्रेमी की सबसे बड़ी जीत यह नहीं है

कि वह अपने जीवन में अपनी प्रेमिका को हासिल कर पाया या नहीं बल्कि यह है

कि वह अपनी प्रेमिका के साथ बहुत दूर तक जा पाया है या नहीं।



वह बुजुर्ग चाहता है कि मैं या कि आप

खुल जाएं उसके साथ

ताकि बेझिझक वह बातें करें हमसे

स्त्रियों के संवेदनशील हिस्सों के बारे में

और यह भी कि स्त्रियांे के कौन से अंग कब हो जाते हैं अधिक संवेदनशील



उस बुजुर्ग के पास बैठते हुए अक्सर हमें दिखती हैं महिलाएं

असुरक्षित

हम सोचने लगते हैं कि कोई स्त्री कैसे खड़ी हो पाती होगी

इस बुजुर्ग के सामने

हम उस बुजुर्ग के सामने स्त्रियों को लेकर

कई कल्पनाएं करने लगते हैं

हमारी कल्पनाओं में वह बुजुर्ग हमें बहुत बुरा लगता है।



कामुक बातेें करते बुजुर्ग की हंसी में एक खुलापन होता है

एक गर्मजोशी

एक संतुष्टि

और जीवन के प्रति एक लोभ



अपनी जिस उम्र में बैठकर

वह बुजुर्ग किया करता है कामुक बातें

और जिसके रस में रहता है वह सराबोर

उसके पास बचे हैं अब बामुश्किल दो-चार-पांच वर्ष



अपनी चेहरे की झुर्रियों के साथ जब वह बुजुर्ग

हो जाता है गंभीर

और छोड़ देता है करनी यह मजेदार बातें

तब हो जाता है वह हताश, निराश और परेशान

तब हो जाता है वह उदास

और तब उसकी आंखों के सामने झिलमिलाने लगते हैं

जिन्दगी की अंतिम बची हुई चंद घड़ियां।



वह बुजुर्ग अपनी शारीरिक जरूरत से नहीं

अपनी मौत की घबराहट से भाग कर लौट आता है फिर से इस दुनिया में

और फिर करने लगता है वह वही रंगीन बातें

जिसे देख और सुन कर हमें होती है तकलीफ

और जिससे इस समाज के लिए हमारे मन में पैदा होती है चिंता



कामुक बातंे करते उस बुजुर्ग के लिए

स्त्री देह ही वह जगह है जहां ठहरकर

वह करता है मौत को अपनी आंखों से ओझल

मौत की दहलीज पर खड़ा वह बुजुर्ग जानता है

मौत का सच

मौत की दहलीज पर खड़े उस बुजुर्ग के लिए

स्त्री की देह ही है मौत को ढंकने वाला वह पर्दा

जिसके सहारे चाहता है वह भागना सच से

कुछ और दिन कुछ और पल।







त त त

गढपुरा स्टेशन पर इंतजार

रात के घुप्प अंधेरे में

गढ़पुरा स्टेशन पर जल रही है ढिबरी

रात के घुप्प अंधेरे में गढ़पुरा स्टेशन पर इंतजार कर रहे हैं हम

रेलगाड़ी के अंतिम खेप की

हम यानि मैं, मेरी बहन और उसका डेढ साल का बच्चा



स्टेशन पर जल रही है ढिबरी

और मुसलाधार बारिश हो रही है

और स्टेशन मास्टर फोन पर ले रहे हैं गाड़ियों की खबर

गाड़ियां जो यहां नहीं रुकतीं

गाड़ियां जो वहां नहीं जातीं जहां जाने को खड़े हैं हम

अभी यहां रुकने वाली सवारी गाड़ी के आने पर

यही स्टेशन मास्टर काटेंगे टिकस

यही स्टेशन मास्टर दिखायेंगे हरी बत्ती

इसी स्टेशन मास्टर के सामने जल रही ढिबरी

से छन कर आने वाली रोशनी में बैठे हैं हम, हम

यानि मैं, बहन और उसका डेढ साल का बच्चा।



चौदह कोस से तांगे से चलकर आये हम

हमारी शाम वाली गाड़ी छूट गयी थी

और हम इंतजार कर रहे थे रात की आखिरी गाड़ी की

और मुसलाधार बारिश हो रही थी

स्टेशन पर घुप्प अंधेरा था

और दूर-दूर तक रोशनी की कोई चिंगारी तक नहीं थी

हम ढिबरी की रोशनी में

बार-बार स्टेशन मास्टर से पूछ रहे थे

कि गाड़ी आयेगी तो सही

मुसलाधार बारिश को चीरकर गाड़ी आयी

और हम गाड़ी में चढ गए

और इस तरह पैंसठ वर्ष के इस जवान लोकतंत्र में हमने

एक कठिन सफर तय किया।



त त त



फेरबदल







(1)

हुक्मरान बदल गए

हुक्मरान की ताजपोशी हो गई
हम खुश नहीं हुए
हम सच को जानते थे।

(2)
हम सच को जानते थे
इसलिए दुख कम हुआ
लेकिन उनका दुख बहुत है
जो सच से अभी कोसों दूर हैं

(3)
हुक्मरान बदल गए
गार दिए गए उनकी कुर्सी में कीलें
बदल दी गई उनकी कुर्सी
क्योंकि बदल गई थी उनकी नीयत
वे सच का साथ देने लगे थे
वे हवा को हवा कहने लगे थे
वे भूख को कहने लगे थे भूख

(4)
जिन्दगी में फेरबदल जरूरी है
ऐसा हम-आप सब जानते हैं
सब चाहते हैं कि गतिशील हों जीवन
लेकिन इस फेरबदल का क्या मतलब
जहां सिक्के के दोनों ही ओर
अपनी ही उभरी हुई हड्डियों वाला अक्स दिखे।


सुन्दरता


जहां काम चलता है
वहां थोड़े दिनों के लिए ही सही
मजदूर बस जाते हैं
वहां बन जाती है एक छोटी सी दुनिया

 मजदूरों को बसाने के लिए
और इस दुनिया को सुंदर बनाने के लिए
मजदूरों को काम चाहिए


परछाई बिल्कुल हमारे जैसी


          (1)

सामने रोशनी है
हम बैठे हैं
और हमारे पीछे
हमारी परछाई है
बिल्कुल हमारे जैसी        

          (2)

हम खड़े थे
हमारे पीछे रोशनी थी
और हमने अपने कैमरे से
अपनी परछाई की तस्वीर खींची
परछाई की उस तस्वीर में भी
लोग हमको पहचान लेते हैं
ठीक उसी तरह



त त त









परिचय



उमा शंकर चौधरी



एक मार्च उन्नीस सौ अठहत्तर को खगड़िया बिहार में जन्म। कविता और कहानी लेखन में समान रूप से सक्रिय। पहला कविता संग्रह ‘कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे’(2009) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। इसी कविता संग्रह पर साहित्य अकादमी का पहला युवा सम्मान (2012)। इसके अतिरिक्त कविता के लिए ‘अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार’ (2007) और ‘भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार’(2008)। कहानी के लिए ‘रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार’(2008)। पहला कहानी संग्रह अयोध्या बाबू सनक गए हैं(2011) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। अपनी कुछ ही कहानियों से युवा पीढ़ी में अपनी एक उत्कृष्ट पहचान। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित ‘श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां(2000-2010) में कहानी संकलित। हापर्स कॉलिन्स की ‘हिन्दी की कालजयी कहानियां’ सीरिज में कहानी संकलित। कहानी ‘अयोध्या बाबू सनक गए हैं’ पर प्रसिद्ध रंगकर्मी देवेन्द्र राज अंकुर द्वारा एनएसडी सहित देश की विभिन्न जगहों पर पच्चीस से अधिक नाट्य प्रस्तुति। कुछ कहानियों और कविताओं का मराठी, बंग्ला, पंजाबी और उर्दू में अनुवाद। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस द्वारा पुस्तक ‘श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां(1990-2000) का संपादन। इनके अलावा आलोचना की दो-तीन किताबें प्रकाशित।

संपर्कः- - उमा शंकर चौधरी

बध्व ज्योति चावला, स्कूल ऑफ ट्रांसलेशन स्टडीज एण्ड ट्रेनिंग

15 सी, न्यू एकेडमिक बिल्डिंग,

इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-110068 मो.- 9810229111

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