रविवार, 27 मई 2012

केशव तिवारी




एक बार फिर आऊँगा 

भगवत रावत के कवि पर विचार करते समय एक प्रश्न सबसे पहले उठता है- आखिर इस कवि के अपने लोक और जनपद के पीछे जुड़ाव का आधार क्या है?
वह क्या बात है जो कवि को अपने परिवेश से इस तरह बांधती और मुक्त करती है. इसे मात्र अपने जन और धरती के प्रति कृतज्ञता कह कर बात नहीं समझी जा सकती. इतने वादों और नारों के बीच भी यह कवि यदि डंटा रहा तो कोई तो  बात होगी ही.यह हिंदी आलोचना की बंदरकूद का ही परिणाम है कि वह सीधे केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन से कूदती है तो बीच के कवियों को छूते नकारते, नवें दशक में प्रवेश करती है. इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ गंभीर कवि छूट गए जिसमें      भगवत रावत प्रमुख हैं. जबकि शुरुआती दौर में ही यह कवि कविता की जमीं को पहचान चुका था और इसका यह अटल विश्वास था कि देर-सबेर आलोचना यहीं लौटेगी.

भगवत रावत उन विरल कवियों में से हैं, जिन्होंने अपनी जमीन के विस्तार ही, दुनिया को नापा जोखा और दुनिया की मुक्ति के साथ ही अपने लोगों की मुक्ति देखी. यह कवि खुद को इसुरी का हरकारा घोषित करता है और रेनू के हीरामन से इस देश की व्यथा-कथा और आजादी के बाद हुए मोहभंग का एक अलग इतिहास ही रच देता है. ईसुरी का हरकारा हिरामन से जब संवाद करता है तो वह देश एक राग लिखता है. लोक के प्रति एक अतिशय मोहशक्ति से मुक्त निरपेक्ष भाव से देखने की यह दृष्टि परोक्ष रूप से उन्हें मार्क्सवाद से मिली है.

भगवत जी की जिस सरलता को हलके में लिया गया दरअसल यही उनकी सबसे बड़ी ताकत रही है. यह संस्कार उन्हें बुन्देली जीवन से मिला, हाँ कही-कहीं बुन्देली हनक भी. एक विलक्षण जनपदीय बोध के साथ उन्होंने कवितायें लिखीं. समय की परिधि के इस-उस पार देखते हुए अपनी धुरी पर कायम रख कर देखना होगा कि भगवत रावत जिस जीवन को रचते हैं उसमें वे कहाँ होते हैं.

इधर कविता में दो प्रवित्तियाँ साफ़ दिखती हैं. एक तो बाहर सुविधाजनक जगह तलाश कर वहाँ से नैरेशन किया जाय या फिर उसमें घुस कर, रच-बस कर व्यक्त किया जाय. भगवत रावत का जो कविता संसार है उसमें बिना घुसे उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता. लोक में पैठे बिना उस पर कुछ भी कह पाना संभव नहीं है. कविता केवल लोक की छुवन नहीं बल्कि उसकी पूरी अभिव्यक्ति मांगती है. जो भगवत रावत के यहाँ है. कविता में कुछ कवि आलीशान कलाकृतियों से अलंकृत भवनों का निर्माण करते हैं पर ऐसी अकेली और भयावह कि आप उसमें प्रवेश करने से डरें. स्वयं कवि वहाँ नहीं मिलेगा. कुछ कवि कविता में जीवन तलाशते हैं. शिल्प और जीवन इतना रचा-बसा कि एक को भी आपने अलग किया तो सब भरभरा कर ढह जायेगा. वर्तमान समय को केवल ज्ञान की दृष्टि से विश्लेषित नहीं किया जा सकता उसके लिए संवेदना से लबरेज एक मन भी चाहिए.

अगर लोग कहते हैं कि अधिक सहज होने से काम नहीं होगा तो मेरा कहना है कि गढी हुई जटिलता से एक सहज मन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, भले ही एक स्वाभाविक-भावुकता वहाँ ज्यादा हो, पर होगा सब मनुष्यता के पक्ष में ही. भगवत रावत की लंबी कविताओं में आपको शिल्प का विरल कसाव देखने को मिलेगा. वे वर्णनात्मक हो कर भी लौट-लौट कर जिस तरह अपने कथ्य पर आते हैं, वह साधना पडता है तभी वह कविता में आता है. उनकी एक लंबी कविता है अथ रूपकुमार कथा
एक झूठी भावुकता नपुंसक विद्रोह फिर खूंटे पर सुरक्षित हमारा पूरा का पूरा समय ऐसे कितने रूप कुमारों से भरा है. पूरी कविता इसकी अद्भुत व्याख्या करती है. इन रूप कुमारों की दुनिया में कवि जिस दृष्टि और निःसंगता के साथ घूमता है वह कबीर की याद दिलाता है. भले ही भाषा में थोड़ा पीछे खड़ा बात करता है. जैसा केदार नाथ अग्रवाल कहते हैं- सरसों की पांत के पीछे खडा मैं बोलता हूँ. भगवत रावत की कविताओं में सब कुछ एक विशेष राग-लगाव के साथ आएगा. उनकी नदी बेतवा आयेगी तो पुरखों को याद करते जो इसके किनारे विलमें हैं. बेतवा आयेगी तो चट्टानी छातियों में धड़कते हृदय आयेंगे. बेतवा किन स्मृतियों से जुड कर एक सम्पूर्ण नदी बनती है, कवि मन में वह सब आएगा.

भगवत रावत निरंतर अतीत, वर्त्तमान और भविष्य के यात्री कवि हैं, उनके यहाँ आपको कहीं भी अकेला अतीत नहीं मिलेगा. एक कवि होने के नाते मुझे बार-बार लगता है भगवत रावत जिस तरह लय को साधते हैं वह नीरस कविताओं के जंगल में भद्दर चैत की गर्मी में बुन्देलखंडी पलाश वन सा उनकी कविताओं को अलग ही  रंग देता है. भगवत रावत के यहाँ कविता की मिठास और कसक बिलकुल अपने उसी स्वरुप में है जैसा कि वह होती है.

भगवत रावत की एक कविता है- बाहर जाने की जल्दी. उसमें खोपरे के टेक का डिब्बा धोखे से लुढक गया है. बच्चों ने टूटे दांतों वाला कंघा कहीं रख दिया है. सब अस्त -व्यस्त है, और उसे जल्दी है कहीं जाने की. इस कविता में केवल एक निम्न मध्यवर्गीय स्त्री का ही जीवन नहीं है बल्कि एक कवि भी अपनी यात्रा पर निकलना
चाहता है. और उसके आस-पास ही जरूरी चीजें अस्त-व्यस्त हैं. कविता की यही ताकत अपनी ओब्जेक्टीविटी को सब्जेक्टीविटी में देखती है.
एक कविता व्यथा-कथा में कवि कहता है-

सभी के पास होंगी कुछ ऐसी यादें
सभी के पास होंगे बहुत से ऐसे चेहरे
सभी के पास होगा ऐसा ही कुछ
तो मैं कह रहा था कि
इन्हीं सब बातों के बीच
पता नहीं कब मैं कविता करने लगा
ऐसी ही बातों को लेकर मैं
शब्दों के पास गया बेहद डरा-डरा
बहुत धीरे धीरे मैंने उन्हें छुआ.

इस पूरी कविता में नए सत्य के उदघाटन का कहीं कोई दंभ नहीं. संत कवियों की विनम्रता भगवत रावत के यहाँ जगह-जगह पर मिलेगी. जीवन शामिल विनम्रता भगवत रावत की कविताओं में हर जगह नए रूप में हाजिर मिलेगी. चाहें हीरामन की अधीरता हो या इसुरी का धीरज. हर जगह समय को देखते टटोलते पूरे परिवेश में शामिल उनका कवि समकालीन मुहावरे के साथ हर जगह मिलेगा.

मध्य वर्ग में पनप रही चतुराई और विवशता को भगवत रावत अपनी उधार-नकद कविता में पकडते हैं, जहां दुकानदार की दूकान के चलते ही संबंधों की कीमत कम हो जाती है. उधार माँगने के लिए व्यक्ति बैठा व्यक्ति किस तरह दूकान के खाली होने का इन्तजार करता है, जबकि दूकानदार उसे टालना चाहता है. यहाँ पर कवि बाहर से कमेंट्री नहीं करता बल्कि मध्य वर्ग के मन में शामिल होकर उसे पढ़ता है. भगवत रावत बिट, उक्ति-कथन और चमत्कार पैदा करने वाले कवि नहीं हैं. अपनी एक कविता अतिथि कथा में तो भगवत रावत खुद को डीक्लास कर सफाई कर्मचारियों के जीवन में उतर जाते हैं. कैसे अतिथि और मेजबानों में शामिल स्त्री-पुरुष डलिया-झाडू रख कलारी के बगल में बैठे समधी का स्वागत करते हैं.

भगवत रावत के यहाँ बुन्देली अपने अलग ठाठ से आती है. केदार जी का भू-भाग तो बुन्देलखंड है पर उनकी बोली अवधी और बघेली से मिली-जुली है. भगवत रावत के यहाँ वह अपने पूरे रंग में आती है. इस तरह भगवत रावत मूल बुन्देली के अकेले प्रगतिशील कवि है. शब्दों का प्रयोग इतना सार्थक है कि पूरी कविता में बस एक शब्द बुन्देली का टाक देंगे और वह कविता बुन्देली की हो जायेगी. अपनी एक कविता एक बार फिर आउंगा में कवि कहता है-

आग के गोल गोले से होकर निकलूँगा
आग के दरिया पर तैर कर दिखाउंगा
एक बार फिर काजल की कोठरी में जाऊंगा
और लीकों ही लीकों वाले चेहरे में
और भी खूबसूरत लग कर दिखाऊंगा
अंत में कवि कहता है कि
पुनर्जन्म के बारे में कुछ नहीं जानता
लेकिन कविता में लौटने का भरोसा नहीं होता
तो कब का डूब गया होता.

कवि किसी पुनर्जन्म में नहीं कविता में लौटने की बात करता है. जब कवि स्वयं अपने लिए प्रतिमान तय करता है तभी वह जीवन के उत्स को कविता में ला पाता है. जिस से कविता मनुष्य के सबसे निकट खडी होती है. भगवत रावत जिस मंथर गति से साहित्य के उबड-खाबड को पार कर यहाँ ताक पहुंचे हैं उसके मूल में उनकी वही चेतना रही जो कभी सुप्त नहीं हुई. समकालीन कविता की भागदौड से पाठक अगर कुछ थक गए हों तो उन्हें हिंदी में भगवत रावत जैसे सुकून देने वाले कवि कम ही मिलेंगे.                  


(केशव तिवारी हिन्दी के जाने-माने युवा कवि हैं.)                         

शुक्रवार, 11 मई 2012

वंदना शर्मा







कविता की दुनिया में वंदना शर्मा एक सुपरिचित नाम है. वंदना शर्मा की कविताएँ अपने अलग तेवर और शिल्प के चलते सहज ही पहचान में आ जाती हैं. वे कहने के असीम साहस के साथ अपनी बातें रखती हैं और अपनी कविताओं में स्त्री समाज की विडंबनाओं को इस बेबाकी से उजागर करती हैं कि वे महज स्त्री समाज की विडम्बना या समस्या न हो कर पूरे शोषित-दमित समाज की समस्या बन जाती है. कहना न होगा कि आज भी स्त्रियाँ दमितों में दमित और शोषित हैं. आखिर क्यों ऐसा होता है कि स्त्री कुछ बोले, विद्रोह करे तो बेलगाम कह दी जाती है. आखिर एक लडकी के व्यक्तित्व को किन-किन प्रतिमानों द्वारा कब तक तौला जायेगा. शरीर की नाप-तौल, रंग, रसोई, ड्राईंग रूम, डिग्री. क्या-क्या प्रतिमान होंगे उसे मापने जांचने के? क्या यह समाज का दोयमपना नहीं. लड़कों यानी पुरुषों के लिए दुनिया की सारी बेहिसाब छूटें और लड़कियों के लिए जगत के सारे बंधन. यह कहाँ का न्याय है, कैसा समाज है जो अपने को आधुनिक कहते-कहलाते नहीं अघाता. लेकिन अपना सामंती व्यवहार किसी कीमत पर छोडना नहीं चाहता. क्या स्त्री का का अपना व्यक्तित्व ही उसे बताने के लिए काफी नहीं? वंदना इस गैर बराबरी का मुकाबला करने की हिमायती हैं और अपनी आगे की पीढीयों के लिए एक दरवाजा खोलने की कोशिशों में लगातार जुटीं हैं. यह एक अच्छा संकेत है कि खुद अपने दम, अपनी पहलकदमी के चलते चौकन्नेपन की बोझिल गठरी से लडकियां बाहर निकल रही हैं. निर्ममता की सारी हदों को पार कर जाने वाले पुरुष समाज को तभी वे हिकारत से शिखंडी कहती हैं. जो स्त्री रूप की आड़ में ही हमले कर हमेशा जीतता रहा है. इस तमाम हिकारत और शिकायत के बावजूद वंदना का कवि मन आखिर कह उठता है- अभय रहो परजीवियों. क्या यह एक कवि और अंततः एक स्त्री की विजय नहीं?                




हम हैं संक्रमण काल की औरतें





साबुत न बचने की हद तक...
साबित करती रहेंगी हम कि हे दंडाधिकारियो..
गलत नही थे हमें ज़िंदा बख्श दिए जाने के तुम्हारे फैसले


हमने किये प्रेम तो कहलाये बदचलन..
हमने किये विवाह तो साबित हो गये सौदे ..
हमने किये विद्रोह तो घोषित कर दिए गये बेलगाम


छाँटे गये थे हम मंडी में ताज़ी सब्जियों की तरह
दुलराये गये थे कुर्बानी के बकरे से..
विदा किये गये थे सरायघरों के लिए..
जहां राशन की तरह मिलते थे मालिकाना हक


आंके गये थे मासिक तनख्वाओं, सही वक्त पर जमा हुए बिलों, स्कूल के रिपोर्ट कार्डों,
घर भर की फेंग शुई और शाइनिंग फेमिली के स्लोगन से..
और इस चमकाने में ही बुझ गईं थीं हमारी उम्रें
चुक गईं सपनो से अंजी जवान आँखें..
हमसे उम्मीदों की फेहरिश्त उतनी ही लम्बी है
जितनी लम्बी थी दहेज़ की लिस्ट..
शरीर की नाप तोल, रंग, रसोई, डिग्रियां और ड्राइंगरूम से तोले गये थे हम


क्लब में जाएँ तो चुने जाने की सबसे शानदार वजहें सी लगें
रसोई में हों तो भुला दें तरला दलाल की यादें..
इतनी उबाऊ भी न हो जाएँ कि हमारी जगहों पर आ जाएँ मल्लिकाएं


सीता सावित्री विद्योत्तमा और रम्भा ही नही
हम में स्थापित कर दी गईं हैं अहिल्याएँ....
लक्ष्मण रेखा के दोनों और कस दिए गये हमारे पाँव
हमारे पुरुष निकल चुके हैं विजय यात्राओं पर..


हमने कहा, सहमत नही हैं हम
हमारे रास्ते भर दिए गये आग के दरिया,
खारे पानी के समुन्दरों और कीचड़ के पोखरों से
नासूर हैं हमारे विद्रोह, लड़ रहे हैं हम गोरिल्ला युद्ध
खत्म हो रहे हैं आत्मघाती दस्तों से ..


हमारी बच्चियों
हमारी मुस्कुराहटों के पीछे..
कहाँ देख  पाओगी हमारे लहूलुहान पैरों के निशान
हमारे शयनकक्षों में सूख चुके होंगे बेआवाज बहाए गये आंसुओं से तर तकिये
सीनों में खत्म हुए इंकार भी,अच्छा हो कि दफ्न हो जाएँ हमारे ही साथ..


हमारी कोशिश है कि खोल ही जाएँ
तुम्हारे लिए, कम से कम वह एक दरवाजा
जिस पर लिखा तो है 'क्षमया धरित्री'
किन्तु दबे पाँव दबोचती है धीमे जहर सी
गुमनाम मौतें...


इसलिए, जब भी तुम कहोगी हमसे 'विदा'
तुम्हारे साथ ही कर देंगे हल्दी सने हाथों वाले तमाम दरवाजे
ताकि आ सको वापस उन्ही में से ..
खुली आँखों से खाई,कई कई चोटों के साथ !!



बोनसाई लड़कियाँ



बस रिक्शा रेल ..
कुछ भी नही आस पास
केवल कुछ
इंसान ..
लड़की चौकन्नी ..
याद दिलाती विज्ञापन सी
सावधानी हटी दुर्घटना घटी !
चौकन्नेपन की...
इस बोझिल गठरी से ..
निकल रही..
बोनसाई लडकियां ..!!!



हे परजीवियो



विरत मत होओ मुझसे
तुम्हे ठेस लगेगी...
पगला देंगी तमाम बेचैनियाँ,
तय नहीं हो सकेगी तुम्हारी जीत..


लहूलुहान कर दो मेरी पीठ
विदीर्ण हाथ पैर....
ऐसे नही बनेगी बात..
नए पैंतरे सोचो,पढ़ जाओ शास्त्र
उंगलियाँ उठाओ खोद डालो जड़ जमीन
मुझसे ही उगो बढ़ो बन जाओ पुरुषोत्तम
उठाओ ब्रह्मास्त्र...


इतने वार करो कि धुंधलाने लगे दृष्टि
सुनो ऐसा करो कि गढ़ डालो अंदाजों के लाक्षागृह
सावधान रहना कि मूँद भी दीं जाएँ प्रतिरोधी सुरंगें
संवेदनाओं के फायों से ढांप दो
सब साफ़ साफ़ चिन्हतीं आँखें ...


ताकि हे शिखंडियों..
थम सकें मेरे नि:शब्द अट्टाहस
तुम्हारी खिसियाई जीतों पर ...
जाओ,अभय रहो हे परजीवियों
कहलाओ मर्द !



कश्मीरी फुलकारियाँ



५०० बोत कम हैं दीदी
इस से कम में नही चलेगा
बेन हो तुम
तुमसे क्या ज्यादा मांगूंगा ?
बहनापे के शब्दों का मुंह सुर्ख हो गया
चले गये तुम छोड़ सौ रुपये
ओढ़ा कर गर्म कश्मीरी फुलकारियाँ !


दूर गाँव में
सुन्न पहाड़ पर...
कम पड़ जाते पानी जैसी,
जिन्दगी बिताती
बहिन तुम्हारी..
मिलता है न मेरा चेहरा
किन्तु शाल का उष्ण यह स्पर्श,जरा नही मिलता
आनलाइन बैंक में जीरो गिनते परदेसी सहोदर से
पतझड़ के पत्तों से आते ठन्डे चेक
और भी रूखे कर जाते हैं हाथ..


अगले जन्म हम
पहलगांव के नेशनल हाइवे से
साथ साथ ही उतरेंगे मैदान.....
अम्मी के बांधे मुट्ठी भर मेवे भरे जेब में
साथ साथ ही बेचेंगे शाल मफलर टोपियाँ !!!



प्रेम करती हुई लड़की




''ये प्रेम के शुरूआती दिन हैं''
ये प्रेम के शुरूआती दिन हैं
भागतीं हैं ट्रेन सी घटनाएं
किन्तु प्रेम करती हुई लड़की
लेटी है पाँव पसार..
बिनसर के सूने जंगलों की लता सी !


बिना धुला,थका चेहरा भी
दमकता रहता है आज कल
त्वचा की ठीक पहली परत के नीचे
शरद की सुबह सी
अनचीन्हे फूलों से भरी होती है
प्रेम करती हुई लड़की !


हिल स्टेशन पर मौसम के
खिले दिनों की राहत सी
गुनगुनी धुप सी रहती है
आखिर वह कर रही होती है ..
दुनिया के सबसे शानदार पुरुष से प्रेम !


अलौकिक कल्पनाओं वाले स्वप्न पाखी
सतत देते हैं कोरे कागजों से सन्देश
विसर्जित कर देती है वह उनमे
तमाम वर्जनाएं ठीक ऐसे
कि जैसे हो सारी सावधानियों के साथ पूरी असावधान
अहर्निश तैरती है उनके अद्रश्य आखर सरोवरों में
जल पर दिए सी !


बेवजह बातें बेसबब उठती बैठती भूलती है हर जरुरी काम
और आपस में ही उलझते हाथ आजकल नहीं मानते उसकी बात !


स्मृतियों में आते ही दादी नानी की वह सीख
कि किताबों से इतर बहुत कुछ है करने सीखने को
वह लेती है राहत की सांस..
रोकने को उमगती हँसी ..
धौल जमाती है सहेली की, बेखबर पीठ पर !



प्रेम करती हुई लड़की अक्सर सोचती है क्यों गढ़ा गया सच्चिदानंद
लिखा जा सकता था केवल प्रेम ....
क्यों मांगे गए अभयदान, चाहे जा सकते थे प्रेम के वरदान ..
जिसे कहना चाहिए था, प्रेम क्यों कहा गया निर्वाण..


प्रेम करती हुई लड़की के लिए किसी काम के नही होते तर्क !


वह लड़की हैरान है अपने नास्तिक होते जाने पर
कि उसमे उतरने लगी है हीर बर्खास्त चल रहे हैं नारायण


सुबह शाम और चाँदनी रात का होना अब होने लगा है ...
ठीक सुबह शाम और चाँदनी रात के होने जैसा ..
बारिशें अब बारिशें ही लगने लगीं हैं और लम्बे रास्ते हो गए हैं बहुत छोटे !


आज कल सुन पा रही है सारी बातें
फूलों परिंदों हरी चूड़ियों और उत्सवों की भी..
जिन्हें जरा भी नही जानती थी वह कभी पहले !


प्रेम करती हुई लड़की, ह्रदय में छुपाये इन्द्रधनुष
हाथों में थामे ताज महल, जब इठलाती हुई टहलती है
वीनस पर..
सर झटकता है समय का, दुनियादार बूढा..
और हैरत से झपकता है, धँसी भयभीत आँखें !!!!!!!



सुनो सरिता रूहेला



तो आगे हुआ ये..
कि तयशुदा ठिकानों तक पहुँचाने वाली
तमाम बसें...
ठीक उसी तरह मुस्कुराती रहीं...
जैसे मुस्कुराते हैं अनामंत्रित जिद्दी अतिथि
नाराज ही रहे सफ़र के तौर तरीके
उर्ध्व हो गईं तमाम सड़कें..
अंधे कुओं में बदलते गये मील के पत्थर
तुम कहाँ होगी सरिता रूहेला ?
लाटरी के फ्री टिकट सी,खाली सीट बस की,
तुमको सौंपते ....
नहीं पहुंचे तुम्हारे शब्द मुझ तक
कि जैसे जरुरी है मंथर रहें,
गाय भैंस भेड़ बकरियां..
रखें नजर निश्चित मार्गों पर..
वैसे ही अच्छी नहीं लगतीं दौडती हुई लडकियाँ
मन मर्जी दौडती हुई लड़कियों को
लील ही जाते हैं अक्सर रास्ते !!!!
***      ***          ***       ***

सोमवार, 7 मई 2012

महेश चंद्र पुनेठा


अटूट और असंदिग्ध जनपक्षधरता के कवि: विजेंद्र


कोई अगर मुझसे कविवर विजेंद्र की एक और सबसे बड़ी विशेषता के बारे में पूछे तो मेरा एक वाक्य में उत्तर होगा- विजेंद्र अटूट और असंदिग्ध जनपक्षधरता के कवि हैं। उनकी जनपक्षधरता का परिचय इस बात से ही चल जाता है कि जब अज्ञेय की जन्म शताब्दी वर्ष में तमाम प्रगतिशील वामपंथी अज्ञेय की कला से मुग्ध होकर उनकी प्रशंसा में कसीदे पढ़ रहे थे विजेंद्र ने असाध्य वीणापर साहस और विवेक से लिखते हुए अज्ञेय की लोक से दूरी और जनविमुखता को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि क्यों यह कविता एक बड़ी व अर्थवान कविता नहीं कही जा सकती है? विजेंद्र इस आलेख में कहते हैं -’’ जब कवि जनता से-अपने लोक से-एकात्म होता है-उसके संघर्ष में शरीक होता है तभी वह शिवेतरक्षतये की बात सोच सकता है। आध्यात्म और रहस्योन्मुखता से वह जनता के संघर्ष में न तो शरीक हो सकता है। न वह शिवेतरक्षतये की बात सोच सकता है।’’ कविता का सबसे बड़ा प्रयोजन यही है। यही उसकी सार्थकता है। विजेंद्र मानते हैं कि यह कविता शिवेतरक्षतये की कसौटी में खरी नहीं उतरती है। वे अपने इस आलेख में इस कविता के संदर्भ में मुख्य रूप से चार बातों को रेखांकित करते हैं-पहली बात ,इस कविता में अपने देश के तत्काल अतीत की ऐतिहासिक द्वंद्वमयता से कवि की संवेदना का सरासर विच्छेद है। दूसरी बात ,कविता का कथ्य समकालीनता की गतिकी के अनुरूप नहीं है। यह कविता उस पतनशील कला की प्रतीक है जो जन तथा लोक से दूर रहकर निरर्थक और निष्प्राण होती है। तीसरी बात है काव्य प्रयोजन की दिशाहीनता। सारा जोर आत्मशोधन पर है। पूरी कविता आत्मसाक्षात्कार की ध्वनि है। चैथी बात है समग्र कविता का जीवन-निषेधी प्रभाव। कविता हमें किसी जीवंत दिशा की ओर प्रेरित नहीं करती। वे आगे लिखते हैं-असाध्य वीणकी पूरी फिजा सामंती है। वहाँ दरबार उपस्थित है। राजा को असाध्य वीणा से उपजे सिर्फ स्वर गानकी चिंता है। स्वयं को खोजने की बेचैनी है। पर अपने समाज के दुःखी जनों की कोई चिंता नहीं है।.पूरी कविता में मनुष्य की लोकधर्मी क्रियाओं का अभाव है।....असाध्य वीणा’ ,’प्यौर पोइट्री’-पतनशील रूपवादी कला का प्रतीक है जिसका गहरा संबंध अपने देश की जनता से न होकर राज दरबार से अधिक है। वह राजा के विलास का माध्यम है। लोकतंत्र में वह आज अपनी प्रासंगिकता लगभग खो चुकी है।उनका काव्य नायक जन जीवन से कटा हुआ है जैसे वह स्वयं।इसमें अपने समय के अंतर्विरोध नहीं उभरते। लगता है सब ठीक-ठाक है। बस कवि को एक ही चिंता है कि राजा की आसाध्य वीणा साध्य हो जाए।.उसमें भारत की संघर्षशील जनता की कोई छवि नहीं उभरती।’’ इस तरह हम पाते हैं कि इस पूरे आलेख में जन की चिंता ही केन्द्र में है। किसी कविता का ऐसा विश्लेषण एक जनपक्षधर और प्रतिबद्ध कवि ही कर सकता है। वही कविता को इस दृष्टि से देखने में सक्षम हो सकता है। मात्र इसी आलेख से भी हम विजेंद्र के जीवन और कविता के दर्शन को समझ सकते हैं। उनके राजनैतिक और सामाजिक सरोकारों और प्रतिबद्धताओं को जान सकते हैं। वे उक्त आलेख के अंत में कविता और कवि-’’ कर्म को लेकर बहुत महत्वपूर्ण और सारवान बात कहते हैं-लोक से एकात्म होकर उसके संघर्ष को कविता में दिखाना। सर्वहारा के बीच से संघर्षशील नायक चुनकर क्रूर होती जाती सत्ता का प्रतिरोध करना। इसी प्रक्रिया में हम शिवेतर-क्षतेय के सिद्धांत को कविता में चरितार्थ कर पाएंगे।’’ यहाँ यह बात केवल कहने के लिए नहीं कहीं गई हैं बल्कि वे जीवन-भर अपनी कविता में इसी सार को चरितार्थ करने की कोशिश करते रहे हैं।उनके इंद्रियबोध ,विचारबोध और भावबोध के केंद्र में जन या लोक रहा है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संसार को अनंत रूपात्मककहा है अर्थात यह संसार अनंत रूपों वाला है। इस अनंत रूपों वाले संसार को उसके सारे रूप-रंगों में अनुभव करने मनुष्य की ज्ञानेंद्रियाँ उसकी मददगार होती हैं। इनके जरिए शब्द, रूप ,रस गंघ और स्पर्श के संवेदन मनुष्य को मिलते हैं। यही मनुष्य का इंद्रियबोध कहलाता है। एक जनपक्षधर कवि का इंद्रियबोध बहुत मजबूत होता है क्योंकि वह दृष्टा मात्र नहीं होता है बल्कि भोक्ता भी होता है। दूर बैठकर नहीं बल्कि बीच जाकर देखता है। आज की कविता में इंद्रियबोध की लगातार उपेक्षा हो रही है उसको बीते जमाने की बात कहा जा रहा है पर कविवर विजेन्द्र इसके खिलाफ रहे हैं और इंद्रियबोध की बात बार-बार उठाते हैं। उनका स्वंय का इंद्रियबोध भी बहुत गहरा है फलस्वरूप वे जीवन और प्रकृति की वैविध्यमयी सुरंगी क्रियाशीलता को रचनात्मक भाषा में व्यक्त करने तथा आज की सारी जटिलताओं के बीच जिंदा आदमी की पहचान कराने में सफल होते हैं। यह जिंदा आदमी हमारे मूल्यबोध और सौंदर्य चेतना में गुणात्मक परिवर्तन करता है। उनकी कविता अपने भू-भाग की सांस्कृतिक और जातीय परंपराओं और संस्कारों के अनुरूप अपनी अनुभूति और प्रभाव में एक वैशिष्ट्य लिए हुए है। वे अपने आसपास की संवेगपूर्ण भाषा ,मानवीय व्यवहार और प्रकृति से बहुत तन्मयता और सार्थकता से जुड़ते हैं। जीवंत आदमी और उसके परिवेश को व्यक्त करने के लिए समाज के अंदर तक जा-जा कर उसे समझने का प्रयास करते हैं। वहाँ की नंगी सच्चाई को देखते-परखते हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में जिन भी चरित्रों और दृश्यों को दिखाया है ,उन्हें बंद कमरों में बैठ किताबों में पढ़ या दूसरों से सुनकर नहीं उतारा है बल्कि उनके बीच जाकर उन्हें अपनी पाँचांे ज्ञानेंद्रियों से टटोला है और भाव के अयस्क को विवेक की धमन भट्टी में तपाया है फिर सुंदर आकृतियों में ढाला है। अपनी मिट्टी का रंग, उसकी गमक ,उसके नदी , पहाड़ ,गाँव-शहर पेड़-पौधे ,फल-फूल ,पशु-पक्षी ,ऋतुएं, फसलें ,उनका स्वाद, अपने जन की वेश-भूषा ,उनके रीति-रिवाज,पुराकथाएं सब उनकी इंद्रियानुभवों का हिस्सा बनकर उनकी कविताओं में मूर्त हुई हैं जो उनकी कविताओं को एक विशिष्ट जातीय पहचान प्रदान करती है। जीव-जंतु और वनस्पतियाँ अपने रंग-रूप व नामों के साथ आईं हैं। इस रूप में वे भारत की उस साहित्यिक परम्परा जो वाल्मीकि ,कालिदास से लेकर नागार्जुन , केदार ,त्रिलोचन आदि तक फैली है, से जुड़ते हैं। वे अपनी धरती से ही कथ्य ,रूपक ,शब्द और उसकी क्रियाएं चुनते हैं। अपने नायकों को ढूँढते हैं। उन सबको अपने चित्त का हिस्सा बनाते हैं-मेरा घर, मेरा गाँव ,मेरी नदियाँ/मिश्र धातुओं की तरह खनकती देसी क्रियाएं/जिंदा आदमी और ताजा निसर्ग/वे सब मेरे चित्त का/हिस्सा बन चुके हैं।वे उस सबको अपने चित्त में रचते है जिसे वह जगत और प्रकृति में देखते हंै। इसके लिए वेउनके बीच/ उनके साथ/उनके निकटजाते हैं। कविता के प्रतिमानों को बदलते हैं।कविता के नए प्रतिमानोंकी जगह लोकधर्मी प्रतिमानों को स्थापित करते हैं। वे बीहड़ ,खुरदुरेपन ,उजाड़ और उबड़खाबड़ में सौंदर्य की खोज करते हैं। काले ,मटमैले ,धूसर में भी उनको सौंदर्य दिखाई देता है। ये रंग जो जीवन में उपेक्षित हैं उनके यहाँ पूरी सज-धज के साथ जीवन-सत् लिए हुए आते हैं-काली स्याह आँखों वाली/वह श्यामा/मुझे बहुत अच्छी लगती है/जब वह तगारी ले जाती है/जब वह जीने से/सुर्ख भीगी ईंट ले जाती है।.....सुंदर हैं वे कालौंच सने हाथ/कठोर हथेलियाँ /काले नाखून/अंधेरे को भेदती उत्सुक आँखें/होती है नई सृष्टि /हर क्षण/हर पल। इन पंक्तियों में काला रंग श्रम के साथ एक नई चमक को प्राप्त करता है। ऐसी चमक जिसमें सौंदर्य के पुराने मानक धराशायी हो जाते हैं। कृत्रिम सौंदर्य के विपरीत धरती और श्रम के सौंदर्य को महिमामंडित करते हैं। इसी के चलते उनकी कविताएं अपने परिवेश के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल देती हैं। हम समाज ,समय ,प्रकृति के प्रति बिल्कुल नए ढंग से सोचने लगते हैं। हमारा सौंदर्य बोध बदल जाता है। कविता को संकुचित दुनिया से बाहर निकालते हैं और कविता के प्रतिमानों को बदलने का संकल्प लेते हैं- मुझे कविता और जीवन के प्रतिमान/बदलने ही होंगे/मुझे अपना सौंदर्यशास्त्र/फिर गढ़ना होगा।

विजेंद्र की कविताओं में देखने-सुनने की क्रियाएं बहुत अधिक आती हैं। कवि सबकुछ देखता-सुनता है और उसी गहराई से पाठक को दिखा-सुना देता है। इनकी कविताएं क्रियाशील जन का पूरा चित्र उकेर देती हैं। पाठक इन कविताओं को पढ़ते-पढ़ते देखने सा लग जाता है। कवि उन आवाजों को सुनता है जो पूरी धरती को अपने में समेटना चाहती हैं, जो समुद्र की तरह विशाल और मरुस्थल की तरह उत्तप्त ,पठारों की तरह कठोर ,पतझर की तरह सूखी ,वर्षा की तरह गीली ,बाँक की तरह पैनी, फूलों की तरह नरम हैं। इन आवाजों में मौजूद हैं- जब एक आदमी दूसरों के लिए फसल काटकर अपना जिस्म सुखाता है ,जब रात के चिल्ला जाड़े में खादर का किसान खेत में पानी में काटता है तथा जब माँ बच्चों को दूध पिलाती है। ये आवाजें दुःख और उदासी से मुर्झाए चेहरों की तरह शांत ,डूबते सूरज की तरह लाल ,उगते दिन की तरह खुशनुमा हैंै-ये सामूहिक आवाजें/आंदोलित किसानों की हैं/ये आवाजें /कारखानों के प्रदर्शनकारी श्रमिकों की हैं। इन आवाजों को वे सदियों से सुनते आ रहे हैं। इन्हें उनके पूर्वजों ने भी सुना और उनके वंशजों ने भी। इस तरह उनकी कविताओं में तीनों कालों की आवाज विस्तार पाती है। वे इतिहास में घटित सारी आवाजों को सुनना चाहते हैं। वे अतीत की चीखती झंकारें सुनते हैं जिससे जीवन का कल्पतरू फूला-फला है। इन आवाजों को सुनकर कवि के मन में एक विश्वास प्रस्फुटित होता है और कवि आह्वान करता है-.....ओ कवि ओ अंगिरा / तुम सुनो वे आवाजें/जो सहसा पृथ्वी के गर्भ से उठती हैं/आदमी ही बदलेगा अपनी नियति/यह दुनिया/रचेगा नया सौंदर्य/अपूर्व स्थापत्य/यह विश्वास मुझे उसी ने दिया है/यह उस आदमी का उठा हाथ है/जो खड़ा है धारा के विरुद्ध। यही विश्वास कवि को सृजन के लिए प्रेरित करता रहा है। कवि सिर्फ बाहरी आवाजों को ही नहीं सुनता है बल्कि- पिघला मैग्मा अंदर-अंदर खौलता है/ उसकी दहक सुनता हूँ/धरती से उठी आवाजों में। यह प्रकांतर से मनुष्य की भीतर की आवाज है। एक साथ कवि दो आवाजों को सुनता है। बाहर-भीतर दोनों में उसकी बराबर आवाजाही है। उनकी कविताओं में जितना बाहर प्रतिबिंबित होता है उतना ही भीतर उद्घाटित । आत्ममंथन और आत्मालोचना लगातार चलती रहती है। कवि उन आवाजों को सुनने का आग्रह करता है जो अपनी पीड़ाएं कहते-कहते चुप हो गई हैं- जिसे क्रूर दानव हर समय दबाने को/एक ध्रुवीय मुखौटे बदल रहा है। वास्तव में देखा जाय तो इन्हीं को कविता की सबसे अधिक जरूरत है। दृश्यों और आवाजों से भरी कविताओं में हम पाते हैं कि विजेंद्र केवल सतह पर देखने वाले कवि नहीं है ,उनकी दृष्टि सतह से नीचे बहुत भीतर तक जाती है जहाँ से वे जीवन का सारतत्व ढूँढ कर लाते हैं। इसको वह एक कवि दायित्व भी मानते हैं। जो खुली आँखों से नहीं दिखता है उसको दिखाने की कोशिश करते हैं-मुझे हर बार इन्हें खँगालने को/सतह से नीचे जाना होगा धैर्य से/.....मेरे जिस्म में जाल की तरह फैली नसें/धरती के अतल में उतरने को कहती हैं/.....सुनता हूँ सतह के नीचे/टकराहटंे कण-प्रतिकण/संरचना. स्थापत्य भीतर के।देखिए ना! एक कवि की पिपासा , इसके बावजूद भी उनको लगता है-जो सोचता हूँ कह नहीं पाता। यही बेकली है जो कविता को सार्थकता प्रदान करती है।

इस न कह पाने के पीछे कभी-कभी भाषा भी अवरोधक बन जाती है-ओह.. क्या कहूँ उनसे/नहीं समझ पाता उनकी भाषा जब/कैसे पहुँच पाऊँगा उनकी/धड़कनों तक /नहीं जान पाऊँगा उनका दुःख/उनका विषाद कहाँ गया.......इसलिए विजेंद्र क्रियाशील मनुष्य के जीवंत व्यवहार से भाषा सीखने की कोशिश करते हैं। इस प्रयास में जन से जुड़ने की उनकी छटपटाहट दिखती है। दो-आब के होते हुए भी राजस्थानी के शब्द उनकी कविताओं में जिस प्रमाणिकता के साथ आते हैं वह इस बात का प्रमाण है। प्राणवान क्रियाओं से जुडे़ होने के कारण उनकी भाषा में व्यंग्य ,विडंबना और आक्रमण करने की क्षमता है तथा भाषा एंद्रिक और बिंबात्मक हुई है। साथ ही उसमें बहुत विविधता दिखाई देती हैं। कहीं आम बोलचाल की तद्भव प्रधान भाषा है जिनमें लोकबोलियों के शब्दों को भरपूर स्थान मिला है तो कहीं संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्द। आवश्यकतानुसार जिस जीवन को व्यक्त करना है उसी की तरह की भाषा।उनकी मान्यता है -..असरदार भाषा हलक से नहीं/बड़े इरादों वाले दिल से निकलती है/.....भाषा की दरिद्रता शब्दों से नहीं/विश्वास की कमी से/पहचानी जाएगी। यह भाषा की ही ताकत है कि उनकी कविता छुअन से समझने और गंध से पहचानने की क्षमता रखती है।

एक जनपक्षधर कवि की खासियत होती है कि वह एक कवि कहलाने से पहले एक अच्छा इंसान कहलाना अधिक पसंद करता है। उसकी दृष्टि में सृजक होने से पहले एक अच्छा इंसान होना जरूरी है। कविवर विजेंद्र भी कविता लिखने से ज्यादा जरूरी जीवन में कवि बने रहने की सक्रिय बेचैनी और सतत तैयारी को मानते हैं। तभी एक अर्थवान कविता जन्म लेती है। इसके लिए एक बहुत बड़े मानवीय संकल्प की जरूरत होती है। अगर मन में कुटिलता उत्पन्न हो जाए तो कविता कर्म संभव नहीं।वे कवि से केवल यह अपेक्षा नहीं करते कि वह जैसा-तैसा लिखे बल्कि यह भी कि वह अपने जीवन में अच्छा इंसान बनकर रहे। उनका यह तर्क मुझे बहुत सटीक लगता है -’’ यदि हम स्वयं आचरण से गिरे हैं तो हमारे शब्दों की पवित्रता पर कौन भरोसा करेगा । हम एक सुंदर और बेहतर समाज बनाने के लिए यत्नशील हैं तो पहले स्वयं तो आचरण से अनुकरणशील बने।’’ यह केवल कोरा उपदेश नहीं है वे खुद भी जीवन भर यह जतन करते आए हैं। उनकी इस मान्यता के चलते ही मैं पहले-पहल उनकी ओर आकर्षित हुआ। सबसे अधिक इसी बात ने मुझे प्रभावित किया।

उनके लिए कविता आत्माभिव्यक्ति मात्र नहीं है । वे आत्मा में ही सबकुछ नहीं ढूँढते हैं। उनकी दृष्टि भौतिक संसार में दूर-दूर तक जाती है। वे प्रकृति और मानवीय क्रियाओं को बारीकी से देखते हैं। विशाल सृष्टि के विविध रूप उनकी नजर में हैं। उनके लिए कविता का उद्देश्य मनुष्य की आत्मा का शिल्प रचना होता है। यह तभी संभव है जब हम अपना व्यवहार और इरादे बदलेंगे। इस संबंध में उनकी समझ बिल्कुल साफ है-‘‘किसी भी कविता की परिणति क्या होगी यह इस बात पर निर्भर करती है कि हमने कितनी गहराई से जीवन के द्वंद्व और इतिहास की गति को समझा है। हमने जो समाधान सुझाए हैं वे कितने विवेक सम्भव हैं। किस सीमा तक समकालीनता का आक्रमण कर सार्वकालिकता से जुड़े हैं।’’ उनके लिए कविता की सफलता और सार्थकता तभी है जब वह जीवन ,प्रकृति और संसार के भौतिक क्रियाशील स्वरूप से मार्मिक परिचय करा उनके आंतरिक सौंदर्य तथा सारवान अर्थवत्ता से भी बहुत-बहुत गहराई से परिचय कराए। न केवल इतना बल्कि इस सबके बीच मनुष्य की संघर्षधर्मिता ,अजेयता तथा अपरिमित शक्ति का जानदार एहसास बराबर कराती रहे। उनके लिए सच्चा कवि वही है जो उन सारी विसंगतियों से एक योद्धा की तरह जूझता है। उनसे संघर्ष करता है । वह असंगत व्यवस्था को बदलना चाहता है। जो संघर्ष से जी चुराता है वह कवि नहीं कायर है। कवि कर्म सूरमाका ही कर्म है। जो त्याग , संघर्ष और जोखिम उठा सकता है। यह कर्म सुविधाजीवी और उन मौकापरस्त लोगों का नहीं है जो हवा का रूख पहचान कर अपने शब्द उचारते हैंैं। वे बाबा नागार्जुन की इन काव्य पंक्तियों के नजदीक हैं- इधर साधारण जनों से अलहदा होकर रहो मत/कलाधर या रचियता होना नहीं पर्याप्त है/पक्षधर की भूमिका धारण करो/विजयिनी जन-वाहिनी का पक्षधर होना पड़ेगा। पक्षधर की भूमिका में होना उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। वे घर में बैठकर लिखने वाले नहीं बल्कि अपने पूरे अंचल में घूम-घूम कर अनुभव ग्रहण करते हैं। उनकी कविताओं में मजदूर-किसानों के वैसे ही चित्र मिलते हैं जैसे नागार्जुन के यहाँ। विचार और भावना दोनों स्तर पर उन्हें निराला बहुत उद्वेलित करते हैं। उनके यहाँ हाशिए में पड़े लोगों का जीवन संघर्ष जिस जीवंतता के साथ आता है वह मनुष्यता के प्रति हमारे विश्वास को दृढ़ करता है। विजेंद्र समाजिक सरोकारों से लैस एक संपूर्ण जीवन के जीवंत कवि हैं जो सचेत और संवेदनशील हैं। वैज्ञानिक दृष्टि वाले सच्चे इंसान हैं। उनकी कविता के स्रोत भीतर की अपेक्षा बाहर अधिक हैं। जनवादी कवि की यह खासियत होती है। बाहर का परिवेश और घटनाएं उन्हें बहुत आकर्षित और बेचैन करती हैं। वे व्यक्ति और समाज दोनों की गरिमा के समर्थक हैं। उनकी राय में -सामूहिकता के सघन पेड़ पर ही/निजता के गंधवान फूल खिलते हैं/असंख्य साँसों की नमी में ही/प्राणों की ऊर्जा /उदित है। उनका संकल्प है-.आए जितना चाहे आतप आए/इसमें भी खेल अजब जीवन का/हम सब मिलकर खेलेंगे। ये सामूहिकता उन्हें जनता से जोड़ती है।

आज मध्यवर्गीय और नागरबोध वाले कवियों की कविताओं से प्रकृति विलुप्त होती जा रही है जिससे कविता न केवल निर्जीव हो रही है बल्कि क्रियाशील परिवेश से भी हमें काट रही है जो इकरसता और ठसपन का कारण बन रही है। लेकिन विजेन्द्र की कविता में प्रकृति से कभी विछोह नहीं दिखाई देता है यह उनकी निजता और जीवंतता का प्रतीक है। उनके यहाँ निसर्ग और जीवन एक दूसरे के पर्याय बनकर आए हैं। वे प्रकृति को मनुष्य के जीवन के साथ देखते हैं। उनके लिए प्रकृति मनुष्य से बाहर और अलग तथा उसे दूर से सहलाने ,दुलारने वाली वस्तु नहीं है। अपने अंचल का मानवीय और भौतिक भूगोल कभी उनकी आँख से ओझल नहीं होता है जो उनकी कविता को समृद्ध और लोकोन्मुखी बनाता है। उनकी स्पष्ट मान्यता है ,‘‘ जो अपने क्षेत्र, अपने गाँव, अपने नगर ,अपने कस्बे और पूरे देश की प्राकृतिक गरिमा को नहीं जान सकते। वे कविता को यथार्थ से कैसे जोड़ सकते हैं। वह यथार्थ अधूरा है जो अपने परिवेश को सूक्ष्मता से व्यक्त नहीं करता।’’ उनकी कविताओं में अपने अंचल का भूगोल ही नहीं बल्कि इतिहास और संस्कृति की द्वंद्वात्मकता और उसके संक्रमण का बोध भी होता है। फल-फूल के वृक्षों के इतने सारे नाम आते हैंे कि एक किसान उतने नामों से परिचित नहीं होगा। इससे पता चलता है कि कितना प्रेम करते हैं विजेंद्र अपनी जमीन तथा उसकी प्रकृति से। उन्हें धरती कामधेनु से ज्यादा प्यारीहै। उसको बचाए रखना चाहते हैं। उन्होंने प्रकृति से सीखा है-अपने रंग को कभी-फीका न होने दूँ/और तेज हवाओं के बदलते रूखों से/अपनी जड़ों को न छोडूँ। इसी का प्रभाव है उनकी कविता गहरा यथार्थ व्यक्त कर हमें जीवन का उल्लास देती है तथा जीवन से अनुराग पैदा करती है। कवि दुनिया-प्रकृति की विविधता को समाप्त कर एकरसता स्थापित नहीं करना चाहता है। सबकी अलग-अलग पहचान को महत्व देता है। उसको बनाए रखना चाहता है। दुनिया की सुंदरता उसकी विविधता में ही है। वे इस बात को सिद्दत से महसूस करते हैं। कवि इस विविधता भरी दुनिया में रच-बस जाना चाहता है। किसी दूसरे लोक में स्वर्ग की कल्पना नहीं करता है। धरती से प्रेम करने वाला कवि ही इस तरह की बात कह सकता है। विविधता और सूक्ष्मता का सम्मान करता है। हर कण को महत्व देता है। उसे अपने जीवन का रचक बनाता है। सबके साथ जीवन-धारा में साथ-साथ तैरना चाहता है। विविधतापूर्ण दुनिया के पक्ष में होना अंततः आम जन के पक्ष में होना ही है। विविधता लोक की विशेषता है। विजेंद्र की चाह है कि-धरती पर रहूँ/उसी में रच-बस /कंचन मणि पा लूँ। वे नहीं चाहते कि-एक नहीं /हरपल ,हर प्रवाह में/हर तिनके की/पहचान अलग है/नहीं चाहता सागर बनकर/उन्हें अपनी ही/आकृति में ढालूँ।..........जब तक जीवन है /कहूँगा धरती सुुंदर है। धरती अन्न से भरी है और तीनों लोक से न्यारी है।

विजेन्द्र की जनक्षधरता का एक और प्रमाण उनकी कविता का केंद्र तथा उनमंे निहित चिंताएं है। उनकी कविता के केंद्र में वे लोग हैं जिनके अत्यधिक श्रम से कंघे पिराते हैं ,पेट दूखता है। जिन्होंने धूप में तन सुखाया है। आँत-ताँत की है जो -साँझ तक खाल सुखा-सुखा हँसियाँ चलाते हैं-दमन से आतंकित दलित/आदिवासियों के जागते समूह/जिनकी पीठ पर पड़ते हैं अभावों के कोड़े/.....रौंदे गए इंसान बेआवाज/भभकती लौ को पचाते हुए चारों तरफ। जिनमें लड़ने का अकूत बल है तथा अपने बल पर भरोसा है। जिन्होंने हिम्मत कभी नहीं हारी है। जो विपदाओं का सामना करते हैं। पर विडंबना है कि जिनकी -किसी चीज में हिस्सेदारी नहीं। जिनका कोई मालिकाना हक नहीं है। ये सिर्फ दूसरों को फसलें बोते काटते हैं। अथक काम करते हुए भी कर्महीन कहलाते हैं। कवि को दुःख है -जो करता है कठोर श्रम/ पाता है/ कुल पैदावार का/एक चुटकी भर/..जो रोज मेहनत करके खाता है/उसे रोज मुँह की खानी पड़ती है/....हजारों लोग अधपेट सोते हैं/जिन खेतों को /वे बच्चों की तरह पालते हैं/उनकी भरी पूरी उपज/उन्हें नहीं मिलती। कैसी त्रासदी है-जो सुंदर चीज बनाते हैं /उन्हें हर शाम/अगले दिन की चिंता है। कवि उनकी दुर्दशा को देख बहुत बेचैन होता है। उसके अंदर एक भभूका उठता है। वे उन सभी के दर्द से कराहते हैं-मर रहे हैं जो भूख से/प्यास से/बिना दवा दारू के/कुपोषण से जन्मते हैं रोग बच्चों में। कवि कोने में छिपे बैठे भयभीत मनुष्यों और भूख व अभावों से मरते आदमी की जीती जागती कराहटों को सुनता है। जिनको कोई नहीं सुनता है। कवि देखाना चाहता है उनके हुनर मंद हाथ -जिन्होंने काटी ये बारीक जालियाँ /संगमरमर में/बनाए फूल पत्ते/लाल पत्थर में/देखने दो वे अभाव भी/जिनके दाग आज भी अंकित हैं/यहाँ की दीवारों पर। उनकी कविताएं वहाँ जाती हैं- छिपी हैं जहाँ चुप्पियाँ दासों की/दबे कुचले किसानों की/कराहटें बे-आवाज सताई गई स्त्रियों की/अन्न को तरसते बच्चों की। कवि ने इनके भीतर गहन दुःख को तो देखा ही साथ ही उनके सहने की अनुपम ताकत को भी देखा है जिसने कवि को अंदर से बड़ा और निर्भय बनाया है।

ऐसा नहीं कि विजेंद्र को जन के दुःख-दर्द और पीड़ाएं ही दिखाई देती हों और वे उस पर असहाय से अश्रुधारा बहाते रहते हों उन्हें अपनी मुक्ति के लिए लड़ते हुए लड़ाके भी दिखाई देते हैं। उनकी राय रही है कि हम अपने समय की गतिकी को अग्रसर करने के लिए सामाजिक सरोकारों को इस तरह व्यक्त करें कि अग्रगामी ऐतिहासिक शक्तियों को बल मिल सके। जन शक्ति का जो उभार लोक लहर के रूप में दिखाई दे रहा है वह भी हमारी कविता का कथ्य बने। वे अपनी कविताओं में यह काम सिद्दत से करते हैं। वे मुक्ति के लिए मनुष्येतर शक्ति में नहीं बल्कि मनुष्य के संगठन पर विश्वास करते हैं- जो एकजुट हैं/वे आज के अचूक अस्त्र हैं/......आदमी बाहर आना चाहता है/ये हाथ विरोध में उठना चाहते हैं । उनकी कविताओं में संगठित हुए उठे हाथों की चमक दिखाई देती है। कच्ची मिट्टी के वह इलाके दिखाई देते है जो चैकन्ने हुए जिनकी रौ से काँपती है सत्ता। कवि उनके भीतर का समर चुपचाप देखता है।(यह चुपचाप देखना उनकी सीमा भी कही जा सकती है) वह उस आदमी को देखना चाहता है जो बदलता आया है इन्हें। उन भुजाओं को जो उठी हैं क्रूर शासकों के विरूद्ध। वह जानता है- उठते जनसमूह को /डिब्बे में बंद नहीं किया जा सकता/उठती हुई जनशक्ति रूक नहीं सकती है।.....वे भूख और पीड़ा की बेड़ियाँ तोड़ने को /अंदर से आक्रामक हैं /इनका समाधान गोली नही/ लकड़हारे को मुकुट पहनाने से होगा। यह अंतिम पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण है-कवि शोषण-उत्पीड़नकारी सत्ता का समाधान श्रमिक वर्ग द्वारा सत्ता पर अधिकार करने में देखता है। यह कवि की जनशक्ति पर अटूट आस्था को बताता है। इस जनशक्ति को पहचाने पर कवि का बल रहता है इसलिए वे खुद से प्रश्न करते हैं....एक साहसी आदमी के इरादों को/क्या मेरी कविता की लय पहचानती है/खनिज खोदने वालों के हाथों की लचक/मेरी भी ताकत है/वह मेरे देश की उम्मीद है। यहाँ केदारनाथ अग्रवाल याद आते हैं जो अपनी कविता के बल को जनता से प्राप्त मानते हैं। उसी परम्परा को विजेंद्र भी आगे बढ़ाते हैं। वे यह भी जानते हैं मुक्ति आसान नहीं होती है। उसके लिए एक कठिन संघर्षमय वैज्ञानिक राह से गुजरना जरूरी होता है- युद्ध एक डरावना बीहड़ है/लेकिन /मुक्ति के लिए /उसे पार करना होगा। यहाँ ध्यान देने की बात है कवि युद्ध करने कीनहीं उसको पार करने कीबात करता है। यही वह बिंदु है जहाँ साम्राज्यवादी या आतंकवादी युद्ध और जनयु़द्ध में अंतर होता है। यु़द्ध करने और उसको पार करने में अंतर है। इसका आशय है कि यहाँ यु़द्ध थोपा गया है। यहाँ कृषक-मजदूर आक्रमक नहीं प्रतिरोधक के रूप में इस युद्ध में शामिल हैं। कवि दमित-शोषित-उत्पीड़ित जन का आह्वान करता है- तुम्हें कठोर जीवन/जीते-जीते/वह सहज लगने लगा है/उठो और जागो/मनुष्य जीवन सिर्फ दासता के लिए नहीं/प्यार में करूणा ही नहीं/प्रतिरोध भी है..../तुम कहो/वे बातें/जिससे औरों को भी/मुक्त होने का/साहस मिले।

कवि इन संघर्षशील शक्तियों का साथ देने की अपील अपनी कविता में करता है-आ तू आ/ इनका संग-साथ दे/ ओ कवि! इन्हें रचना में संगठित होता दिखा/इन्हें कंधों से टटोल/जो ये उठें/ और हँसिया हाथ में लेकर/अन्याय का प्रतिकार करें।...... नहीं कवि नहीं/ तू उसे अपने छंदों में ढाल/लय में पिरो/उसे करोड़ो की तेजस वाणी बना/ ये मेरा प्रचुर जीवन आवेगमय/मेरी अबाध धड़कनें/मुक्त हो जीने को/एक सुंदर जीवन/लड़ रहे हैं जो स्याह सदियों से। कवि इनके भीतर छिपे बल ,स्वाभिमान ,ऋतु ज्ञान ,बड़ी लालसाओं ,जीने की प्रबल इच्छाओं ,उनके भीतर दहकती आँच को पहचानता है। उन्हे अपनी कविताओं में लाकर सम्मान प्रदान करता है-उन्हें वंश भास्कर में स्थान नहीं मिला/यह छंद चारणों का है/ओ कवि/तू इस नियति को बदल/अपने रूपक,छंद लय और उपमान बदल/यह छंद सूर्य ,चंद्र ,तारागण और नक्षत्रों का है/तू धरती का छंद रच। उनकी कविता के सच्चे स्रोत वही लोग हैं जिन्होंने घोर अभावों में पराजय नहीं मानी-इसके बिना विराट सूना है/यह उसकी जान है/उसकी उष्मा है। कवि इन योद्धाओं से माँगता है......अपनी मुक्ति के लिए लड़ते देश वासियो/मुझे भी अपनी धड़कनें दो/जिससे मैं अपने देश को प्यार कर सकूँ। वे प्यार करना चाहते हैं जन-जन को बावजूद इसके जरूरी मानते हैं घृणा करना उनसे जो आदमी को पशु से बदतर समझते हैं और संुदर दुनिया को नष्ट करने में जुटे हैं तथा जिनके दाँतों में माँस चिपका है।

एक जनपक्षधर कवि के मन में श्रम और श्रमशीलों के प्रति कितना सम्मान होता है इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है-चट्टान तोड़ते हाथ/पोखरें पाटने वाले हाथ/बंजर को उर्वर बनाने वाले हाथ/मैं तुम्हें/सूरज की शक्ल में/नमन करता हूँ। एक जनपक्षीय रचनाकार ही यह कह सकता है-.फसल उगाने वालों की मेहनत में/जीवन का गौरव छिपा है। अन्यथा आज तो लोग बैठे-ठाले जीवन बिताने में जीवन का गौरव देखते हैं। धन-दौलत के ढेर में कुंडली मारे बैठे व्यक्तियों के जीवन को ही सबसे सफल जीवन और उन्हीं को अपना नायक मानते हैं। शारीरिक श्रम से जी चुराने और उसे हीन समझने वाले लोगों से भरे इस समय में विजेंद्र जैसे लोग विरले ही मिलते हैं जो कहते हों- श्रम से ही समय में/धार आती है। जो कृषक को अपने युग का नायक तथा श्रमिक को जननायक मानते हों। जो छोटे-बड़े काम करने वाले लोगों जैसे नूर मियां , साबिर ,लादू ,अल्लादी लोहार ,नत्थी- रोशनी माली ,दादी मंगला ,रिक्श्ेा-तांगे वाले, रामसिंह होटिल वाला ,श्याम अकेला साइकिल वाला, राधामोहन नाई, सुरेश गटर साफ करने वाला , बकरी चराने ,कपास बीनने, पत्थर उठाने, कूड़ा बीनने ,ख्ंाडा देने , तगारी उठाने ,झाड़ बुहारने , विधवा रामदेई घूँघट वाली आदि से मिलकर एक बड़ा संसार रचते हैं। इस संसार में न जाति-धर्म का भेद है और न लिंग-भाषा-क्षेत्र का। इस संसार के चरित्रों की विशेषता है कि वे कभी याचना नहीं करते किसी से कुछ माँगते नहीं हैं। उनके भीतर स्वाभिमान है। उनको अपने श्रम पर विश्वास है। पग-पग पर ठोकर खाकर जीवन के अभाव झेलते हैं। फिर भी उनके जीवन में अजब-गजब चमक बनी रहती है। वे धूप-ताप में निर्भय चलते हैं- श्रमोत्कंठित आँखें देखी हैं/धूप में पड़ते कारे/नहीं दीनता ,ना लाचारी/नहीं थक कर हारे।

ये अपने वर्ग के प्रति सचेत और विरोधियों के प्रति असंतुष्ट और वक्र रहते हैं। यहाँ एक बड़ी बात है कवि इन साधारण जनों को देखता ही नहीं है बल्कि उनसे बतियाता भी है। उनके हाल-चाल पूछता है। इसी का परिणाम है कि उनके पात्र भी उनसे भली-भाँति परिचित हैं। इससे कवि की आत्मीयता का पता चलता है। यह दोहरी पहचान दूर से देखने से संभव नहीं है। उसके लिए पास जाना पड़ता है उन्हें देखना-सुनना-जानना-समझना पड़ता है। उनका विश्वास जीतना पड़ता है। विजेंद्र उनकी अंग-भंगिमाओं ,आँखों के संकेतों तक को पढ़ते हैं। उनके मनोभावों को तह तक पहचानते हैं भले बोली को पूरी तरह से न समझें। उनके दिल में उतरने की पूरी कोशिश करते हैं। इसी के चलते कहानी की भाँति उनकी पूरी जीवनचर्या तथा पात्रों की आशा-आकांक्षा-स्वप्नों को अपनी कविताओं में चित्रित कर पाते हैं। इसीलिए कविता के साथ-साथ कथा का आनंद मिलता है। विजंेद्र की कविताओं की यह विशेषता मुझे बहुत प्रीतिकर लगती है। बहुत कम कवियों में यह कौशल दिखाई देता है। उनकी कविता अपने पात्रों की पीड़ा को हृदय के गहनतम त्रास सेव्यक्त करती है जो सीधे मर्म पर असर करती है। पाठक तिलमिला और छटपटाकर रह जाता है। उसकी बेचैनी बढ़ जाती है। निःशब्दता की स्थिति पैदा हो जाती है -कहाँ तक रोएँ/गत है यही /वहाँ के जन की। दूरस्थ जनपदों की उपेक्षा से उद्ववेलित हो कवि प्रश्न करता है- क्या वह नहीं जनपद मेरे देश का/क्या वहाँ के जन में/धड़कता दिल नहीं। इसी तरह की बात उनके अकाल के चित्रण में दिखाई देती है-देखते-देखते भूस्वामी हुए कंगाल/छोटे किसानों ने खो दिए पशु ,बालक और घरबार/जो भूख में/खोदकर खाते जड़ें/पत्ते /पेड़ की छालें। अपने आसपास की दुनिया के लोगों के दुख-दर्द में उनकी कविता शरीक होती है। इन कविताओं में यथार्थ की गहरी समझ तथा वर्ग विभक्त समाज की अमानवीय एवं अन्यायपूर्ण स्थितियों की तीव्र आलोचना मिलती है।

विजेंद्र सबसे अधिक अपनी लोक से एकात्मकता के लिए जाने जाते हैं। लोक से एकात्म होने का मतलब है जन से एकात्म होना। उनका लोकसर्वहारा का पर्याय है। वे तमाम उपेक्षाओं को झेलने के बावजूद भी अपने मार्ग में अडिग हैं। आधुनिकतावादियों को उनका लोक के प्रति प्रेम बिल्कुल नहीं भाता है। वे उनकी लोक संपृक्ति को यात्रिक और ठसमानते हैं। पर उन्होंने ऐसी आलोचनाओं की कभी परवाह नहीं की। वे सत्य विरोधी व्यवस्था के प्रखर आलोचक हैं। उनका लोक अंगे्रजी फोकका पर्याय नहीं है। जो उनकी लोक की कविता को पिछड़ेपन की कविता मानते हैं ,उन्हें बिरसा मुंडाकविता पढ़नी चाहिए। इससे पता चलता है कि लोक का आधुनिकता बोध और संघर्षशील स्वरूप क्या होता है। उनका लोक अपने अधिकार-चेतना से लैस यह हुंकार करता हुआ लोक है-ये वन हमारे हैं/ताल ,पोखर ,नदियाँ हमारे हैं/वनस्पतियाँ ,रूख-रूखड़ियाँ ,वन घासें/सब खनिज दल/फूल-फल हमारे हैं/हमारे/सहस्रफण ,सहस्र भुजाएं,सहस्र आँखें/....हमारी असंख्य अबूझ इच्छाएं/मजबूत हड्डियाँ/....ये कंदराएं हमारी हैं/हम अपनी धरती क्यों देंगे/ उसे कराया है हमने मुक्त/जहरीले हिंसक पशुओं से /हमने बनाएं हैं पथ दुर्गम स्थलों में/....हमने सहे हैं अपमान के कोड़े सदियों तक/खुली देह पर चोटों के गहरे निशान जिंदा हैं/...विवश हैं जानवरों की तरह रहने को/असहाय मरने को/कीड़े-मकोड़े पशु-पक्षी खाने को/पेड़ों की छाल खाकर जीने को/जिंदा हैं/लूटते हैं आकर हमें व्यापारी ठेकेदार/बड़े-बड़े अफसर/बिना अपराध पकड़ ले जाती है पुलिस/हमको चाहे जब/बच्चे हमारे मरते हैं भूख से/रोग से /कुपोषण से/खदेड़ा जाता है हमें बार-बार/ जानवरों की तरह अपनी ही धरती से। इस कविता में जाग्रत लोक के दर्शन होते हैं। यही लोक है जो पूँजीवादी लोकतंत्र के सामने सच्चे लोकतंत्र के स्थापना की चुनौती प्रस्तुत कर रहा है। उसकी सीमाओं और विसंगतियों पर सोचने को विवश कर रहा है। यही है विजेंद्र की वास्तविक जनशक्ति जिससे कवि ताकत ग्रहण करता है और दरबार से दूर रहकर कविता रचता है-मैं हूँ जनतंत्र का कवि/दूर हूँ दरबार से/लिखता हूँ मुक्त छंद लयवान/चरित्र सृष्टि को/लोक क्रियाओं में बाँधकर/कर रहा प्रवाह प्राणों का निर्बाध। उनकी कविता उस आदमी को खोज है-जिसने पहले-पहल पैदा की आँच/रचे कंदराओं पर सुंदर सुडौल चित्र...... जिन्होंने रचा है अपनी आत्मा का शिल्प हर जगह/तराश कर पत्थरों को इकसार /रचे हैं संुदर मेहराब भावों के। साथ ही खोज है -लुप्त हुई नदियों के उद्गम/सूखे झरनों के चट्टानी स्रोत/क्षय होते मनुष्यों की पीड़ाएं/विवश/सूखी झरबेरियाँ /और पंखधारी टीलों में छिपी/मरू जीवन की कठोरता /लड़ते आदमी का समर/....अतृप्त प्यार की खरोचें/.....प्यासे मन का आरोह-अवरोह/बेचैन आदमी का टूटा अलाप। ....उसी वाणी को /जो पके-निखिल को /कहे हर दम।

कविवर विजेंद्र की जनपक्षधर छवि को धूमिल करने की नीयत से समय-समय पर कुछ लोगों द्वारा उनको कलावादी रुझान का कवि साबित करने की कोशिश की जाती रही है। पर मुझे नहीं लगता है कि यह बात उन पर सही बैठती है। उन्होंने हमेशा कला की अपेक्षा जीवन को अधिक महत्व दिया है। प्रस्तुत पंक्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं- वस्तु से ही सबल होता आधार/रूप का/जो संभालता रहता उसे हरदम। कला के चमत्कार के बारे में उनकी स्पष्ट मान्यता है-जानता हूँ नहीं दे पाएगा यह कुछ भी/मुझे और मेरे जन को/करता रहेगा चमत्कृत अपनी कला से। उनका तो हमेशा यह प्रयास रहा है कि ऐसे सहज-सरल-लयवान कविताएं लिखूँ जिसमें अन्न उगाते किसान की अक्षत क्रियाएं ,श्रमिक के माथे से छलकता पसीना और लड़ती जनता के चित्र हों।.....गरीबों की टूटी कमर/धनिकों को लूट का मौका/कविता में यदि कहा/यह मैंने/अभिजन कहेंगे/प्रचार है धज का। पर इसका मतलब यह भी नहीं कि उन्होंने कहीं भी कवितापन के नष्ट होने के साथ समझौता किया। वे संतुलन बनाकर चलते हैं। वस्तु एवं रूप के बीच द्वंद्वात्मक संबंध रखते हैं। इस संदर्भ में वरिष्ठ आलोचक डाॅ0जीवन सिंह का यह कथन सही है कि विजेंद्र की कविता अपने रूपाकार में विशिष्ट होकर भी रूप छल करने वाली कविता नहीं है। वह अपने समय का रूपांकन पूरी सजगता और सहजता के समीप पहुँचकर करती है। उसमें उस मनुष्य की पक्षधरता है ,जो अपने समय की रचना अपनी सक्रियता और श्रम के बल पर करता है। वह मनुष्य केवल भौतिक उत्पादक क्रियाशीलता से ही संबद्ध नहीं है बल्कि वह जीवन मूल्यों का नियंता एवं सृजक भी है। जिस कवि के लिए मूर्त को अमूर्त और धुँधला होने से बचाना ही शब्द साधना है, क्या वह कलावादी हो सकता है? उनकी स्पष्ट मान्यता है -कला या कविता से स्वस्थ आत्मशोधन या आत्मसाक्षात्कार तभी होता है जब वह सामाजिक जीवन की भट्टी में पक कर सामने आती है। विजेन्द्र कविता के भीतर कविता और कवि-कर्म की बहुत बातें करते हैं। उससे भी पता चलता है कि उनकी पक्षधरता क्या है? साथ ही पता चलता है कि वे अपने कवि-दायित्व और कविता के प्रयोजन के प्रति कितने सचेत हैं। उनकी संबद्धता जीवन के प्रति उतनी ही गहरी है जितनी कविता के प्रति। उनके लिए जीवन और कविता एक दूसरे के पर्याय हैं। उनकी कविताएं कविता के सौंदर्यशास्त्र के बारे में भी बहुत कुछ कहते हुए चलती हंैं जो जीवन में भी उतनी ही लागू होती हैं जितनी कविता में। वे कविता के बहाने जीवन के प्रश्नों को उठाते हैं। कवि और कविता को लक्ष्य करते हैं । उसको आलोचना से परे नहीं मानते। कवि को उसके नागरिक और सामाजिक दायित्वों का अहसास कराते हैं-कवि केवल पिद्दी विदूषक नहीं होता/जो दरबार को रिझाता रहे/और न कविता मिनी स्कर्ट।.....कविता एक चट्टानी संरचना है/जनशक्ति उसका खनिज दल/ये शब्द फास्फेटिक रबे/और यह शब्द-बद्ध पंक्तियाँ खनिजों की नसें।....मुझे अपना कथ्य बदलना है/मुझे आदमी के भीतर झाँकना होगा।......कविता रमकते खून से उगी है/....कविता की लय और गति में /मेरी साँसें भी हैं/......कविताएं /आदमी के बड़े इरादे से जन्म ले रही हैं। ....रचना सत्यकण की रंगाकुल आकृति है/रोंयेदार। उन्हें लगता है कि एक रचनाकार को हर बार ज्यादा-से-ज्यादा बाहर देखकर-सुनकर अपने अंदर भी झाँकते रहना चाहिए। जितनी बड़ी मेरी बाहरी दुनिया होगी उतना ही बड़ा मेरा काव्य मन। तेज-तेज शब्दों और आक्रामक भाषा में लिखी कविताओं में उनका विश्वास नहीं है यदि उसके पीछे जनता की शक्ति जो न हो-उस आक्रमकता में क्या दम है/जिसके पीछे असंख्य लोगों का भुजबल नहीं/नई शक्ति का उदय /धीमे-धीमे अन्न की तरह /पकता है/दमन के विरूद्ध विदूषक नहीं/कवि बोलता है। उनका कहना है-....ज्ञान संवेदना से चलकर/बुद्धिगत संवेदना तक का/बीहड़ तय करो/तब कविता का सही पथ/दिखेगा/यह पुनर्गठन से ही /संभव है/कतर व्योंत से नहीं। उनकी राय में कवि आत्मा का शिल्पी ,भाषा का रचियता और तीसरी आँख है जो धरती में छिपे खनिजों का खोज लेता है। वह मनीषी और प्रजापति है जो भाव अयस्क को विवेक की धमन भट्टी में पकाकर कुंदन बनाता है। अतः कवि के पास दाने को भूसे से अलगाने का विवेक तथा रंगों की चारुता परखने की आँख होनी चाहिए। उनकी दृष्टि में कवि कर्म निभाना बहुत कठिन है। उसके लिए जीवन का हामी होना जरूरी है। उस आदमी का अनुरागी होना पड़ता है जो अंधकार के विरूद्ध लड़ाई लड़ते हुए धरती पर नए रूप गढ़ रहा है। कवि को हर समय सुख-दुःख की भट्टी में पकना पड़ता है। किसी के सामने झुकना नहीं होता है। अपना सिर ऊँचा रखकर ही वह औरों का मान ऊँचा रख सकता है। उसका स्वप्न होता है कि बने विश्व सुंदर निश्छल। वे लेखन को मनुष्य से जुड़ने का माध्यम मानते हैं। इससे मनुष्य की गरिमा की रक्षा की जा सकती है। इसीलिए शब्द को उन्होंने अपना हमराही बनाया- अर्थवान शब्द आदमी की गरिमा को/कभी गिरने नहीं देते/मैंने शब्द ही चुना है/जो मनुष्य से कभी अलग न हो पाऊँ/इस कठिन दौर में। कवि अपनी सबसे बड़ी पराजय और आत्मा का क्षरण मानता है अगर वह भाषा को दरबारी गलियारों से मुक्त न करा पाए और तेज-तर्रार जुबान बोल कर भी उसकी रीढ़ झुकी रहे। जनता से जुड़ाव रखने वाला कवि ही इस तरह के बोल बोल सकता है कोई कलावादी नहीं।

एक जनपक्षधर कवि केवल दूसरों पर ही उंगुली नहीं उठाता बल्कि खुद को भी कटघरे पर खड़ा करता है। अपनी निर्मम आलोचना करने से भी नहीं चूकता है। जन के साथ अपने को पूरी तरह विलीन करने वाला व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। इसके लिए अहं तिरोहण करना पड़ता है। आज तो लोग छोटी-छोटी उपलब्धियों को पा जमीन पर नहीं टिकते। कौन कह सकता है इतनी बेबाकी से- कितना डरपोक हूँ.....कायर/वे सवाल कविता में पूछता हूँ/जो हल मुझे करने हैं/....देख रहा जो कुछ भी/होता आँखों के आगे/कहने से डरता/ मन के किसी अलख कोने में/उसे छिपाता।......... उबड़-खाबड़ इस धरती के नीचे/मूल्यवान खनिज हैं/ सतत उमड़ते स्रोत हैं/उनकी रक्षा /क्या मैं /इन रक्त सने अपराधी हाथों से/कर पाऊँगा?....शर्म आती है मुझे/सिर उठाए नहीं बनता/ निर्लज्जता पर अपनी।

विजेंद्र अपनी ही बनाई गई राह पर चलते हुए समय की पैनी धार से मुटभेड़ करने वाले कवि हैं। इनकी कविताओं में कठिन जीवन संघर्ष है पर निराशा या उदासी नहीं। वे संुदर प्रभात के लिए जीने वाले कवि हैं। उजाला ,उगान ,उषा ,धूप ,पकना ,खिलना ,वसंत, आगमन , अंकुरण ,उर्वर भूमि उनके प्रिय शब्द हैं जो उनके भीतर छुपी आशा को परिलक्षित करते हंै। वे कहते हैं-समय को पहचानो/निराश होने की जरूरत नहीं।.उनका विश्वास है.....थिर कुछ नहीं-पतझर के बाद/बसंत जरूर आएगा। उनकी राय में यह आहत ,उदास होने का समय नहीं बल्कि त्रासद गइराइयों में उतरने का समय है। गहन अंधेरे के बावजूद उस उजाले के गीत गाने का समय है जो हमसे दूर है अभी। उन्हें उन लोगों से बदलाव की कोई उम्मीद नहीं जो- बराबर हताशा को/माथे पर धरे/घूमते हैं। उनकी उम्मीद तो उस आदमी से है जो अपनी शक्ति से अंत तक लड़ेगा। इसी के चलते उनकी जीवन और सृजन की शाश्वतता पर गहरी आस्था है- जब तक सूर्योदय और सूर्यास्त है/मनुष्य रचेगा। विवक्षा मनुष्य का स्वभाव है। सिसृक्षा उसकी नियति। सारी कठिनाइयों के होते वह कहेगा। वह सिरजेगा। जीवन की सृजन क्रियाएं कभी रूकती नहीं। उनके आँखों में तो हमेशा नई दुनिया के सपने झिलमिलाते रहते हैं-....मैं न रहूँ /मेरे सपने जीवित हैं/वे उगेंगे/जैसे अंकुरित धान/भविष्य के सपनों से मैं उल्लसित हूँ/ यह सच है/आज की चिंताएं हमें खाती हैं/फिर भी सपने अच्छे लगते हैं। जन-जीवन से रागात्मक संबंध रखने वाले कवि के भीतर ही ऐसा विश्वास विकसित होता है। वही गहन अंधेरे के बावजूद भी उजास के लहकते दिन के खिलने की कल्पना कर सकता है। मनुष्य की क्रियाशीलता उसे सदा स्पंदित करते रहती है।

भले ही विजेंद्र जी के तमाम समवयस्क जो कभी उनके साथ भरोसे से चले थे उन्होंने अपने रास्ते बदल दिए हों। पद-प्रतिष्ठा के मोह में फँस और जोड़-तोड़ में लग गए हों। सत्ता से नजदीकियाँ गाँठ ली हों। पर विजेंद्र अपनी जमीन पर डटे हैं। पूरी दृढ़ता और संकल्प के साथ अपनी प्रतिबद्धता को बदले बिना। आज भी उनके भीतर वही आग महसूस की जा सकती है जो युवावस्था के दिनों रही होगी। माक्र्सवाद में आज भी उनकी आस्था नहीं डिगी है। वे मानते हैं कि माक्र्सवाद ही प्रकृति ,संसार और जीवन की जटिलताओं को बहुत हद तक सुलझा सकता है। जनशक्ति पर उनका विश्वास पहले से कहीं अधिक दृढ़ हुआ है। उन्होंने कविता को अपनी जिंदगी की साथिन बनाया और आज तक उसका साथ नहीं छोड़ा। नहीं आया उन्हें सिंहासनों को ढोकदेना। उन्होंने हमेशा पतनशील और जनविरोधी जीवन मूल्यों के प्रतिरोध के लिए जोखिम उठाया। ऐसा वे उन तमाम खतरों से पूरी तरह वाकिफ रह कर ही कर पाए जो हमारी रचनाशीलता को खत्म करने की पूरी साजिश कर रही हैं- सहस्र भुजाएं खुली हैं दानव की / हड़पने को मेरी मौलिकता/खुला है रक्त पिपासु जबड़ा विश्व बाजार का।..जब तक /जनता जागती नहीं/वह मुझे दास बनाए रहेगा/विश्व बाजार में /नींद की गोलियों का सौदा बढ़ा है/......जूतों के मोटे तले/और फास्ट फूडने/मुझे कमजोर बनाया है। .......वह मेरे मन पर /काबिज होना चाहता है/.....वह स्वर्णमुद्राओं से/मेरा जमीर खरीदता है। पर कवि तो जनपद के उस वृक्ष की तरह है जो ग्रीष्म की तेज तापयुक्त पैनी किरणों के चलते भी नहीं सूखता क्योंकि उसकी जड़ंे अपनी जमीन में गहरी तक पौड़ी हुई हैं। जनपद का वृक्षकविता उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर सटीक बैठती है। उनका रूपक लगती है। उसके कुछ अंशों को यहाँ उद्धरित करने का मोह नहीं छोड़ पा रहा हूँ। जैसे इस कविता में वृक्षकवि का प्रतीक है भास्करप्रभुसत्ता का , ’जनपदआम-आदमी का और ग्रीष्म ताप-तेज चलती किरणें पैनीदमन-उत्पीड़न-शोषण का। उनका संकल्प इसमें पूरी तरह से अभिव्यक्त होता है- नहीं सुखा पाओगे मुझको/ओ सप्त अश्वधारी भगवान भास्कर/सजल स्रोत जीवन से/गुंथी हुई है/धरती में/जड़ मेरी /झेल चुका हूँ/घोर अकाल/वर्षा का अभाव/पूरे जनपद पर मेरे/ग्रीष्म ताप /तेज जलाती किरणें पैनी/तुमने जाना अपने को/रश्मिरथी सम्राट /प्रभुसत्ता का /संकेतों पर चलने वाले/धनपतियों के रक्षक/नहीं सुखा पाओगे मुझको/......पेट भर/ लेकिन यशकामी हो/नहीं सामना कर पाओगे/ प्रस्फुटित वृक्ष का/जो धरती से अंकुरित हुआ/फूटा ,जागा, उमड़ा , लहराया/पूरे नभ में/पाल लिए हैं /तुमने कितने स्वान ,श्रृंगाल/गाने वाले कुलीनचारण/मेरी अपनी सत्ता /क्या है/कहते हैं जनपद के सारे तृण/पूत सगा धरती का। विजेंद्र धरती के सगे पूत हैं। उनकी मजबूत जड़े धरती में गुँथी हैं जो उन्हें मर्म तक साधे हुए हैं। उनकी त्वचा का रेशा‘-रेशा पृथ्वी से ही रस लेता है। वे जानते हैं-...... निरभ्र आकाश में/उड़ान पर /हम सदा रह नहीं सकते/आना तो पृथ्वी पर ही है। उनकी चाह है- मैं चाहता हूँ/बहुत जिऊँ /बहुत-बहुत जिऊँ-/आदमी जीने से कभी न ऊबे/ कभी उससे विमुख न हो/हम सब उसे संुदर /और सुंदर बनाने को /नए खनिज ढँूढें।...........जिंदा रहा हूँ/कविता और प्यार के बल पर/मोक्ष नहीं /मोक्ष धाम नहींे/चाहा है अविरल/रचना कार्य। हमारी भी हार्दिक अभिलाषा है कि यह कवि दीर्घजीवी होए और हम सभी को अपनी कविता से जीवंत बनाए रखे। इस जनपक्षधर कवि का यह सपना ही हम सबका सपना है -खड़ा हो सके/मनुष्य रचा स्थापत्य नया, शिवकाल/संुदर पथ/खुला नभ/नयी धरती और क्षितिज नया।





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