शनिवार, 23 जून 2012

आस्था




आस्था ने इसी सत्र में बनारस हिदू विश्वविद्यालय से स्नातक की अपनी पढाई पूरी की है. युवा कवि एवं आलोचक बलभद्र की पुत्री आस्था को बचपन से ही साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश मिला है. ‘फूस के छप्पर पर’ आस्था की पहली ऐसी कविता है जो कहीं पर प्रकाशित हो रही है. इस कविता में फूस के माध्यम से आस्था ने प्राचीन को नवीन के साथ बखूबी जोडने का प्रयास किया है. वह प्राचीन जिससे हमें यानी नयी पीढ़ी को अपने जीवन संग्राम के लिए बहुत कुछ सीखने-समझने-जानने को मिलता है. वह प्राचीन जो तमाम जीवनानुभवों से भरा हुआ है, लेकिन समय के प्रवाह में उन्हें बीता समझ कर आज उपेक्षित किया जा रहा है. पीढीयों के बीच इस दूरी के लिए ‘जेनरेशन गैप’ शब्द प्रयुक्त किया जा रहा है. यह सुखद है कि आस्था ने  कविता में अपनी पुरानी पीढ़ी को समुचित सम्मान देते हुए उनसे अपनी पीढ़ी के गैप को पाटने की सफल कोशिश की है.






फूस के छप्पर पर


फूस के छप्पर पर
हरी लताएँ
फूस भरी लताओं से
बतियाते हुए कुछ बातें
जैसे बूढा कोई बतियाता हो
किसी बच्चे के साथ
 फूस की बातें अनेक
रिझातीं लताओं को
उकसाती बढ़ने को
एक होड़ होती बढ़ने की
छप्पर तक पहुँचने की, छाने की
कथाओं में उलझने की
जिंदगी को समझने की
जिंदगी को जीने की




समझ से परे
जिंदगी के कई मोड़
जी चुके कई पल, कई लम्हें, कई कथाएं
लताओं के लिए अथाह सागर
पूरा जीवन सिमटता नजर आता
फूस में
बूढ़ी बाहों में सुरक्षा का भाव-बोध
प्यार का एहसास
पूरा जीवन जीने की कला




होती है शाम
बूढा बोलता है
चलो हो गयी रात
चलता हूँ अब
मिलेंगे फिर...


गुरुवार, 21 जून 2012

तिथि दानी




जन्म- 3 नवंबर


स्थान- जबलपुर( म.प्र.)


शिक्षा-एम.ए.(अँग्रेज़ी साहित्य),बी.जे.सी.(बैचलर ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड कम्युनिकेशन्स),पी.जी.डिप्लोमा इन मास कम्युनिकेशन


संप्रति विभिन्न महाविद्यालयों में पाँच वर्षों के अध्यापन का अनुभव, आकाशवाणी(AIR) में तीन वर्षों तक कम्पियरिंग का अनुभव। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं (दैनिक भास्कर, नई दुनिया, वागर्थ, शुक्रवार, पाखी, प्रबुद्ध भारती, परिकथा आदि में कविताएँ और परिकथा में एक कहानी) प्रकाशित।

वर्तमान में Pearls News Network(P7 News Channel),की पत्रिका,Money Mantra नोएडा में कॉपी एडिटिंग।


 





अपनी कुछ प्रारंभिक कहानियों और कविताओं के जरिये तिथि दानी ने हिंदी साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण मौजूदगी दर्ज कराई है. इनकी रचनाओं में शिल्प की तरोताजगी सहज ही देखी जा सकती है. कवियित्री का यह विश्वास ही है जिसके दम पर वह कहती हैं कि आयेगी तुम्हें मेरी याद कहीं. घोर संकट के क्षणों में, अकेलेपन में, भीड़ के रेले में या फिर बयारों के तपन से बचते हुए ही सही, कहीं न कहीं तो कवि अपनी याद दिलाएगा ही. यह याद दिलाना घोर निराशा, घोर अविश्वास और घोर अवसाद के आज के जमाने में भी आशा और विश्वास जैसी उम्मीद की ओर लौटने के सुखद बयार की तरह है. उम्मीद जो हमेशा गतिशील होती है. और यही गतिशीलता उम्मीद को जीवंत बनाती है. तिथि की कविताओं में भरपूर उम्मीद है और यह हमें आश्वस्त करता है कि कविता का भविष्य इस समय की नयी पीढ़ी के हाथों में बिलकुल सुरक्षित है और यह उम्मीद तो सुखद है ही.   




आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं




आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
भीड़ से अलग
किसी तनहाई में ही सही
पर आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर।
ट्रेन की गूँजती और खरखराती आवाज़ के साथ
या उसके बाद ही सही
पर आएगी तुम्हें मेरी याद वही
जब मिले थे पहली बार
नकारते अपनी भाषा का
संगीत, संवाद और लय,
कुछ और कहते हुए से लगते
अपनी आँखों से ।
तभी मैंने जाना था
कि होता है कितना सुखद
होंठों का चुपचाप रहना।




आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
जब भीड़ से ही कोई व्यक्ति
कह जाएगा तुम्हारी ही अनकही
भीड़ के कोलाहल में भी
फिर ढूँढोगे तुम
ऐसी जगह
जो कर दे तुम्हें
नितांत अकेला
ताकि कर सको तुम तलाश
एक ऐसी विधि की
जो रौशन कर जाए
तुम्हारे मस्तिष्क के
किसी कोने में पड़े
मेरी यादों के
मद्धिम पड़ते दिये।




आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर
जब सुबह उठने पर
होगी नहीं कोई खलबली
पर बेचैनी सी
जो दिन भर से
रास्ता ताके बैठी रहेगी
फिर छुएगी तुम्हारा शरीर
लौटते हुए
पा कर अवरुद्ध
उन सभी शिराओं
और धमनियों को
जो भावनाओं और संवेदनाओं को
प्रवाहित किया करतीं थीं कभी
तुम्हारे हृदय तक,
इस मुग़ालते में कि
रात को ही शायद
बेजान पड़ चुके
तुम्हारे शरीर में
हलचल होगी तो सही




आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
जब इत्तिफ़ाकन ही सही
पर किसी और की सुगंध
तुम्हें मेरी सुगंध
के सदृश लगी
और किसी ज़रिए से
हवा में बहती
पहुँची तुम्हारे तंत्रिका तंत्र तक
तब आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर
दिन के उजाले में
तुम्हें अपने आग़ोश में लेती
छाया के साथ
और
रात के अंधकार में
पसरी प्रशांति में
शोर के साथ।




आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
जब भी मौसम के मिजाज़
जानने की कोशिश की
पीपल की ओट में खड़े हुए
बयारों की तपन से
बचते हुए ही सही
पर आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर
फिर जब बारिश की बूँदों से
बढ़ेगा तुम्हारा बुखार कहीं
और
जाड़े की रातों में
तुम्हारी रजाई पर
होगा नहीं खोल कोई
तब आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर।





उम्मीद




उम्मीद
दरिया के उफ़ान सी
समुद्र के ज्वार सी
सूर्य के प्रताप सी
चाँदनी की शीतलता सी
कभी लगती
सितारों की चमक सी
कभी नक्षत्रों के रहस्य सी
और कभी ब्रह्मांड के विस्तार सी
मना करने
और समझाने पर भी
चली आती है
हमें दिलासा देती हुई।




हम रोकना चाहते हैं
अपने चारों तरफ़
मज़बूत घेराबंदी भी करते हैं
और भी न जाने
कितनी तरह के बंदोबस्त करते हैं
फिर भी
आ जाती है किसी ढीठ बच्चे की तरह
जो मना करने पर भी
नहीं मानता।




कभी-कभी हम भी
खुद को बड़ा समझ कर कह देते हैं
चलो आ जाओ
और बड़े प्यार के साथ
हृदय से लगा लेते हैं उसे
और इस तरह
हमारी समझ में भी पैदा होता है एक भ्रम
कि, हम हो गए हैं
इनके घर
और ये हो गयी हैं
इसकी वासी




पर बसंत के मीठे झोंके की तरह
कहाँ ठहरती है ये एक जगह
और चल पड़ती है
किसी नए ठिकाने की ओर
ये ज़रा भी  विचलित नहीं होती
ये सोच कर
कि किस तरह वीरान है इसका पुराना घर
संदेश ये हमेशा भिजवाती है
कि, मैं फिर आऊँगी
और अब के ठहरूँगी लंबा
एक क्षणिक मुस्कान
हमारे चेहरे पर आकर
ग़ायब होती है।




ये दिलासा देती है
कि इसकी आदत डाल ली जाए
और भ्रम में ही रहा जाए
कि हम हो गए हैं
इनके घर
और ये हो गयी हैं इसकी वासी।




पर्याय के बीच अंतर




कभी जब
अकेला महसूस करते हैं ना आप
तो खुद ब खुद खोज में लग जाते हैं
उन जरियों की
जो इस एहसास से छुड़ाएँ आपका पीछा
ये खोज तो आगे बढ़ती जाती है
पर मंज़िल के रास्ते का अंधेरा
और गहराता जाता है
कहते भी हैं ना
जितना कुछ पाने को भागते हैं
उतना उससे दूर होते जाते हैं।


मेरे इस बखान में
एकांत को ही अकेलापन न समझना
ये पर्याय नही हैं एक दूसरे के
पर आपके माथे की सिलवटें
कहती हैं, इतना काफ़ी नहीं है
समझने को




चलो, मैं बता ही देती हूँ
दोनों में से एक
हर जगह उपलब्ध रहता है
और दूसरा  ढूँढो तो नहीं मिलता
एक के साथ
आप अनंत थकान महसूस करते हैं
और दूसरा
गहरे अंधकार में
दिए के लगभग बुझने से पहले ही
आप को मिल पाता है




लेकिन आप
अपनी लालसा से बेबस हैं
और उस एकांत को खोजते हैं
जो क्षणिक ही सही
पर आपको अभिभूत कर जाता है
आश्चर्य है
मुझे इस क्षण पर
कि इसके बाबत
हर जोखिम मंज़ूर होता है आप को




तो इस खोज की प्रवृत्ति को त्याग दें
हर बार निराश ही होंगे आप
छोड़ दें अपने आप को शिथिल
अन्यथा कुछ देर को
जल से बाहर आई मछली के एहसास
घेर लेंगे आप को
हितैषी हैं आप के
तो इस एहसास से
परे ही रखेंगे आप को
इन दोनों से परे भी
किसी की परछाई है
कुछ का कहना है
इसका नाम शांति है
जो प्रतीक्षारत है
क्योंकि अब
बुरी तरह थक चुके हैं आप।




पता-
प्लॉट नं.15, के.जी. बोस नगर,
गढ़ा, जबलपुर(म.प्र),
पिन-482003




सोमवार, 18 जून 2012

अंजू शर्मा




मैनेजमेंट के क्षेत्र में नौकरी को छोड़ कर परिवार और लेखन को वक़्त देने वाली अंजू कविताएँ और लेख लिखना पसंद करती हैं. इनकी रचनाएँ जनसंदेश टाईम्स, नयी दुनिया, यकीन, सरिता जैसी पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं. अंजू विभिन्न ई-पत्रिकाओं से भी जुडी हुई हैं. kharinews.com, नयी पुरानी हलचल, सृजनगाथा, नव्या आदि में कवितायें और लेख प्रकाशित हुए हैं. अभी हाल ही में बोधि प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित स्त्री विषयक काव्य संग्रह औरत हो कर भी सवाल करती है में भी इनकी कवितायें शामिल हैं. वर्तमान में अकादमी आफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के कार्यक्रम डायलोग और लिखावट के आयोजन कैम्पस और कविता और कविता पाठ से बतौर कवि और रिपोर्टर रूप में भी जुडी हुई हैं.          


यह सुखद है कि आज कविता का जो वितान बन रहा है उसमें स्त्रियों का महत्वपूर्ण स्थान है. इन कवियित्रियों ने यह पहचान अपने दम पर बनायी है. अंजू शर्मा एक ऐसा ही नाम है जिन्होंने अपनी कविताओं में स्त्री अस्तित्व के प्रश्न को तलाशने की कोशिश की हैं. चूकि वे इस जीवन से खुद रू-ब-रू हैं अतः यह तलाश उनकी कविताओं में स्वाभाविक रूप से आया है. अंजू को यह भलीभांति मालूम है कि एक स्त्री आज जाग गयी है अब उसे रोक पाना संभव नहीं है. अब वह उन मिथकों की कैद से भी मुक्त हो जाना चाहती है जिसके नाम पर शताब्दियों से ले कर अब तक उसका शोषण किया जाता रहा है. अब वह अपनी पहचान की गाथा खुद अपने नए बिम्बों के साथ लिख रही है. ऐसे बिम्ब जो टटके तो हैं हीं, उनका धरातल भी पुख्ता है.     







तीलियाँ



रहना ही होता है हमें
अनचाहे भी कुछ लोगों के साथ,
जैसे माचिस की डिबिया में रहती हैं
तीलियाँ सटी हुई एक दूसरे के साथ,


प्रत्यक्षतः शांत
और गंभीर
एक दूसरे से चुराते नज़रें पर
देखते हुए हजारो-हज़ार आँखों से,
तलाश में बस एक रगड़ की
और बदल जाने को आतुर एक दानावल में,


भूल जाते हैं कि
तीलियों का धर्म होता है सुलगाना,
चूल्हा या किसी का घर,
खुद कहाँ जानती हैं तीलियाँ,
होती हैं स्वयं में एक सुसुप्त ज्वालामुखी
हरेक तीली,


कब मिलता है अधिकार उन्हें
चुनने का अपना भविष्य
कभी कोई तीली बदलती है पवित्र अग्नि में तो
कोई बदल जाती है लेडी मेकबेथ में.............


एक स्त्री आज जाग गयी है....



(१)


रात की कालिमा कुछ अधिक गहरी थी,
डूबी थी सारी दिशाएं आर्तनाद में,
चक्कर लगा रही थी सब उलटबांसियां,
चिंता में होने लगी थी
तानाशाहों की बैठकें,
बढ़ने लगा था व्यवस्था का रक्तचाप,
घोषित कर दिया जाना था कर्फ्यू,
एक स्त्री आज जाग गयी है.............


(२)


कोने में सर जोड़े खड़े थे
साम-दाम-दंड-भेद,
ऊँची उठने को आतुर थी हर दीवार
ज़र्द होते सूखे पत्तों सी कांपने लगी रूढ़ियाँ,
सुगबुगाहटें बदलने लगीं साजिशों में
क्योंकि वह सहेजना चाहती है थोडा सा प्रेम
खुद के लिए,
सीख रही है आटे में नमक जितनी खुदगर्जी,
कितना अनुचित है ना,
एक स्त्री आज जाग गयी है......




(३)


घूंघट से कलम तक के सफ़र पर निकली
चरित्र के सर्टिफिकेट को नकारती
पाप और पुण्य की
नयी परिभाषा की तलाश में
घूम आती है उस बंजारन की तरह
जिसे हर कबीला पराया लगता है,
तथाकथित अतिक्रमणों की भाषा सीखती वह
आजमा लेना चाहती है
सारे पराक्रम
एक स्त्री आज जाग गयी है.............




(४)


आंचल से लिपटे शिशु से लेकर
लैपटॉप तक को साधती औरत के संग,
जी उठती है कायनात
अपनी समस्त संभावनाओं के साथ,
बेड़ियों का आकर्षण,
बन्धनों का प्रलोभन
बदलते हुए मान्यताओं के घर्षण में
बहा ले जाता है अपनी धार में न जाने
कितनी ही शताब्दियाँ,
तब उभर आते हैं कितने ही नए मानचित्र
संसार के पटल पर,
एक स्त्री आज जाग गयी है.............




(५)


खुली आँखों से देखते हुए अतीत को
मुक्त कर देना चाहती है मिथकों की कैद से
सभी दिव्य व्यक्तित्वों को,
जो जबरन ही कैद कर लिए गए
सौपते हुए जाने कितनी ही अनामंत्रित
अग्निपरीक्षाएं,
हल्का हो जाना चाहती हैं छिटककर
वे सभी पाश
जो सदियों से लपेट कर रखे गए थे
उसके इर्द-गिर्द
अलंकरणों के मानिंद
एक स्त्री आज जाग गयी है...........



औरत और देवी



औरत....
ईश्वर की अनुपम कृति,
जन्मदात्री, सहोदरी, भार्या, पुत्री,
सुशोभित करती रहीं देवी का पद
जिन्हें सौप दिए गए
तमाम शक्तिशाली मंत्रालय,
और वे कुशलता से संभालती रही,
धन, शक्ति, विद्या, अन्न और सृजन,


मंदिरों में सुशोभित हैं वृहद् प्रस्तर प्रतिमाएं,
लदी हुई मालाओं और अलंकृत स्वर्णाभूषणों से,
जिनके पैरों में गिरे जाते हैं ज़माने के खुदा,
वही जिन्होंने घोषित किये नित नए कानून
और बनायीं रोज़ नयी आचार-सहितायें,


शिवालयों की सीढ़ी उतरते ही
घोषित कर दी जाती है
पापिनी नरक का द्वार,
हर पुरुष के पीछे खड़ी छाया
बन जाया करती है हर फसाद की जड़,


धारण करती है अनचाहे गर्भ की तरह
बोझ तमाम कुत्सित लालसाओं
और महत्वकांक्षाओं का,
बन जाती है स्वर्ग-दात्री गंगा,
सोख लिया करती हैं सारे पाप
स्याहीचूस की तरह


या ऐसी दीवार जिस पर लिख दिए जाते हैं
सारे कन्फेशन,
और हो जाते हैं स्वतंत्र
नैतिकता के मठाधीश
करने के लिए नए नए क्रियाकलाप,


या वह टिशु पेपर जिससे पौंछ कर अपनी
गंदगी स्वच्छ और पवित्र हो जाते हैं
समाज और दुनियादारी के ठेकेदार,


और यदि रास्ते की धूल चुभ जाती है
कंकड़ बन के आँखों में,
तो पाट दिए जाते हैं राजमार्ग,
नए नए कानून, आयोग और जांचें भी
खोजती रहती हैं उनके नामालूम नामोनिशान,
जानते हुए भी कि
पत्थर और प्रतिमा के बीच का
अंतर उतना ही है,
जितनी अलग है औरत एक देवी से......