गुरुवार, 21 जून 2012

तिथि दानी




जन्म- 3 नवंबर


स्थान- जबलपुर( म.प्र.)


शिक्षा-एम.ए.(अँग्रेज़ी साहित्य),बी.जे.सी.(बैचलर ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड कम्युनिकेशन्स),पी.जी.डिप्लोमा इन मास कम्युनिकेशन


संप्रति विभिन्न महाविद्यालयों में पाँच वर्षों के अध्यापन का अनुभव, आकाशवाणी(AIR) में तीन वर्षों तक कम्पियरिंग का अनुभव। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं (दैनिक भास्कर, नई दुनिया, वागर्थ, शुक्रवार, पाखी, प्रबुद्ध भारती, परिकथा आदि में कविताएँ और परिकथा में एक कहानी) प्रकाशित।

वर्तमान में Pearls News Network(P7 News Channel),की पत्रिका,Money Mantra नोएडा में कॉपी एडिटिंग।


 





अपनी कुछ प्रारंभिक कहानियों और कविताओं के जरिये तिथि दानी ने हिंदी साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण मौजूदगी दर्ज कराई है. इनकी रचनाओं में शिल्प की तरोताजगी सहज ही देखी जा सकती है. कवियित्री का यह विश्वास ही है जिसके दम पर वह कहती हैं कि आयेगी तुम्हें मेरी याद कहीं. घोर संकट के क्षणों में, अकेलेपन में, भीड़ के रेले में या फिर बयारों के तपन से बचते हुए ही सही, कहीं न कहीं तो कवि अपनी याद दिलाएगा ही. यह याद दिलाना घोर निराशा, घोर अविश्वास और घोर अवसाद के आज के जमाने में भी आशा और विश्वास जैसी उम्मीद की ओर लौटने के सुखद बयार की तरह है. उम्मीद जो हमेशा गतिशील होती है. और यही गतिशीलता उम्मीद को जीवंत बनाती है. तिथि की कविताओं में भरपूर उम्मीद है और यह हमें आश्वस्त करता है कि कविता का भविष्य इस समय की नयी पीढ़ी के हाथों में बिलकुल सुरक्षित है और यह उम्मीद तो सुखद है ही.   




आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं




आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
भीड़ से अलग
किसी तनहाई में ही सही
पर आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर।
ट्रेन की गूँजती और खरखराती आवाज़ के साथ
या उसके बाद ही सही
पर आएगी तुम्हें मेरी याद वही
जब मिले थे पहली बार
नकारते अपनी भाषा का
संगीत, संवाद और लय,
कुछ और कहते हुए से लगते
अपनी आँखों से ।
तभी मैंने जाना था
कि होता है कितना सुखद
होंठों का चुपचाप रहना।




आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
जब भीड़ से ही कोई व्यक्ति
कह जाएगा तुम्हारी ही अनकही
भीड़ के कोलाहल में भी
फिर ढूँढोगे तुम
ऐसी जगह
जो कर दे तुम्हें
नितांत अकेला
ताकि कर सको तुम तलाश
एक ऐसी विधि की
जो रौशन कर जाए
तुम्हारे मस्तिष्क के
किसी कोने में पड़े
मेरी यादों के
मद्धिम पड़ते दिये।




आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर
जब सुबह उठने पर
होगी नहीं कोई खलबली
पर बेचैनी सी
जो दिन भर से
रास्ता ताके बैठी रहेगी
फिर छुएगी तुम्हारा शरीर
लौटते हुए
पा कर अवरुद्ध
उन सभी शिराओं
और धमनियों को
जो भावनाओं और संवेदनाओं को
प्रवाहित किया करतीं थीं कभी
तुम्हारे हृदय तक,
इस मुग़ालते में कि
रात को ही शायद
बेजान पड़ चुके
तुम्हारे शरीर में
हलचल होगी तो सही




आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
जब इत्तिफ़ाकन ही सही
पर किसी और की सुगंध
तुम्हें मेरी सुगंध
के सदृश लगी
और किसी ज़रिए से
हवा में बहती
पहुँची तुम्हारे तंत्रिका तंत्र तक
तब आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर
दिन के उजाले में
तुम्हें अपने आग़ोश में लेती
छाया के साथ
और
रात के अंधकार में
पसरी प्रशांति में
शोर के साथ।




आएगी तुम्हें मेरी याद कहीं
जब भी मौसम के मिजाज़
जानने की कोशिश की
पीपल की ओट में खड़े हुए
बयारों की तपन से
बचते हुए ही सही
पर आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर
फिर जब बारिश की बूँदों से
बढ़ेगा तुम्हारा बुखार कहीं
और
जाड़े की रातों में
तुम्हारी रजाई पर
होगा नहीं खोल कोई
तब आएगी तुम्हें मेरी याद ज़रूर।





उम्मीद




उम्मीद
दरिया के उफ़ान सी
समुद्र के ज्वार सी
सूर्य के प्रताप सी
चाँदनी की शीतलता सी
कभी लगती
सितारों की चमक सी
कभी नक्षत्रों के रहस्य सी
और कभी ब्रह्मांड के विस्तार सी
मना करने
और समझाने पर भी
चली आती है
हमें दिलासा देती हुई।




हम रोकना चाहते हैं
अपने चारों तरफ़
मज़बूत घेराबंदी भी करते हैं
और भी न जाने
कितनी तरह के बंदोबस्त करते हैं
फिर भी
आ जाती है किसी ढीठ बच्चे की तरह
जो मना करने पर भी
नहीं मानता।




कभी-कभी हम भी
खुद को बड़ा समझ कर कह देते हैं
चलो आ जाओ
और बड़े प्यार के साथ
हृदय से लगा लेते हैं उसे
और इस तरह
हमारी समझ में भी पैदा होता है एक भ्रम
कि, हम हो गए हैं
इनके घर
और ये हो गयी हैं
इसकी वासी




पर बसंत के मीठे झोंके की तरह
कहाँ ठहरती है ये एक जगह
और चल पड़ती है
किसी नए ठिकाने की ओर
ये ज़रा भी  विचलित नहीं होती
ये सोच कर
कि किस तरह वीरान है इसका पुराना घर
संदेश ये हमेशा भिजवाती है
कि, मैं फिर आऊँगी
और अब के ठहरूँगी लंबा
एक क्षणिक मुस्कान
हमारे चेहरे पर आकर
ग़ायब होती है।




ये दिलासा देती है
कि इसकी आदत डाल ली जाए
और भ्रम में ही रहा जाए
कि हम हो गए हैं
इनके घर
और ये हो गयी हैं इसकी वासी।




पर्याय के बीच अंतर




कभी जब
अकेला महसूस करते हैं ना आप
तो खुद ब खुद खोज में लग जाते हैं
उन जरियों की
जो इस एहसास से छुड़ाएँ आपका पीछा
ये खोज तो आगे बढ़ती जाती है
पर मंज़िल के रास्ते का अंधेरा
और गहराता जाता है
कहते भी हैं ना
जितना कुछ पाने को भागते हैं
उतना उससे दूर होते जाते हैं।


मेरे इस बखान में
एकांत को ही अकेलापन न समझना
ये पर्याय नही हैं एक दूसरे के
पर आपके माथे की सिलवटें
कहती हैं, इतना काफ़ी नहीं है
समझने को




चलो, मैं बता ही देती हूँ
दोनों में से एक
हर जगह उपलब्ध रहता है
और दूसरा  ढूँढो तो नहीं मिलता
एक के साथ
आप अनंत थकान महसूस करते हैं
और दूसरा
गहरे अंधकार में
दिए के लगभग बुझने से पहले ही
आप को मिल पाता है




लेकिन आप
अपनी लालसा से बेबस हैं
और उस एकांत को खोजते हैं
जो क्षणिक ही सही
पर आपको अभिभूत कर जाता है
आश्चर्य है
मुझे इस क्षण पर
कि इसके बाबत
हर जोखिम मंज़ूर होता है आप को




तो इस खोज की प्रवृत्ति को त्याग दें
हर बार निराश ही होंगे आप
छोड़ दें अपने आप को शिथिल
अन्यथा कुछ देर को
जल से बाहर आई मछली के एहसास
घेर लेंगे आप को
हितैषी हैं आप के
तो इस एहसास से
परे ही रखेंगे आप को
इन दोनों से परे भी
किसी की परछाई है
कुछ का कहना है
इसका नाम शांति है
जो प्रतीक्षारत है
क्योंकि अब
बुरी तरह थक चुके हैं आप।




पता-
प्लॉट नं.15, के.जी. बोस नगर,
गढ़ा, जबलपुर(म.प्र),
पिन-482003




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